अजयमेरु दुर्ग (तारागढ़) – अरावली पर्वतमाला के एक उन्नत शिखर पर अवस्थित अजमेर का तारागढ़ पूर्वी राजस्थान के प्राचीन एवं प्रमुख किलों में माना गया है। शिलालेखों और इतिहास ग्रन्थों में इसे तारागढ़, अजयमेरू तथा गढ़ बीटली इत्यादि विविध नामों से अभिहित किया गया है। इस प्राचीन दुर्ग के निर्माताओं के बारे में प्रामाणिक जानकारी का अभाव है।
उपलब्ध साक्ष्यों से यह प्रकट होता है कि शाकम्भरी (सांभर) के चौहान शासकों ने अरब खलीफाओं के आक्रमणों से सुरक्षा के लिए इस दुर्ग का निर्माण करवाया । इतिहासकार कर्नल टॉड ने अजमेर नगर के संस्थापक चौहान नरेश अजयराज को इसका निर्माता माना है जिसके नाम से यह किला अजयमेरू दुर्ग कहलाया ।
इस सम्बन्ध में डॉ० दशरथ शर्मा ने लिखा है कि सुलतान बहराम गजनवी के सेनापति मुहम्मद बाहलीम ने नागौर को मुस्लिम शक्ति का केन्द्र बनाया और समस्त राजस्थान को आतंकित कर डाला। उससे पूर्व नागौर लगातार शाकम्भरी के चौहानों का मुख्य नगर रहा था। पर अब अजयराज के लिए सांभर में रहना भी कठिन हो रहा था । इसलिए उसने अजयमेरू नगर और दुर्ग की स्थापना की। यह स्थान नागौर और सांभर से कहीं अधिक सुरक्षित था।
इस दुर्ग की प्रतिष्ठा संवत 1170 सन् 1113 से पूर्व हो चुकी थी । दुर्ग के तारागढ़ नामकरण के बारे में डॉ० गोपीनाथ शर्मा की मान्यता है कि मेवाड़ के राणा रायमल के युवराज (राणा सांगा के भाई) पृथ्वीराज ने इस दुर्ग के कुछ भाग बनवाये और अपनी वीरांगना पत्नी तारा के नाम पर इसका तारागढ़ नाम रखा।

अजमेर दुर्ग के एक अन्य नाम गढ़ बीटली के बारे में कहा जाता है कि बीटली उस पहाड़ी का नाम है जिस पर दुर्ग बना है। इस नाम के पीछे एक मत यह भी है कि मुगल बादशाह शाहजहाँ के शासनकाल में विट्ठलदास गौड़ यहाँ का दुर्गाध्यक्ष था (1644 से 1656 ई०) जिसने इस दुर्ग का जीर्णोद्धार करवाया तथा उसे नया स्वरूप प्रदान किया। अत: बहुत सम्भव है उस पराक्रमी योद्धा के नाम पर ही इस किले का नाम गढ़ बीटली पड़ा हो।
इस सम्बन्ध में यह दोहा प्रसिद्ध है –
बाँको है गढ़ बीठली, बाँको भड़ बीसल्ल ।
खाग खेंचतो खेत मझ, दलमलतो अरिदल्ल ।।
जगन पर्वतमालाओं से आवृत्त और प्राकृतिक सौन्दर्य से ओतप्रोत तारागढ़ एक दुर्भेद्य दुर्ग समझा जाता था। पर्वत शिखरों के साथ एकाकार होती दूर तक फैली उन्नत प्राचीर, सुदृढ़ और विशालकाय बुजें तथा सघन वनसम्पदा ने उसे एक सुदृढ़ सुरक्षा कवच प्रदान किया । यह किला लगभग 80 एकड़ की परिधि में फैला हुआ है तथा जिस विशाल पहाड़ी पर बना हुआ है वह समुद्रतल से 2,855 फीट ऊँची है। कर्नल टॉड ने किले के भव्य स्वरूप का उल्लेख करते हुए लिखा है-
The fort rises magestically from its base to the height of about 800 feet, its crest encircled by ancient walls and towers raised by Ajaipal.
तारागढ़ दुर्ग की अभेद्यता के बारे में बिशप हैबर ने कहा है – “पर्वत के सर्वोच्च शिखर पर तारागढ़ नामक एक भव्य दुर्ग है जो लगभग दो मील के घेरे में है परन्तु अपने अनियमित आकार एवं ऊबड़ खाबड़ धरातल के कारण इसमें 1200 से अधिक सैनिक नहीं रह सकते तथापि, कई दृष्टियों से शस्त्रागार के रूप में इसकी उपयोगिता असंदिग्ध है। अधिकतर स्थलों पर इसकी चट्टान अतिविकट और दुर्गम है।
इसमें बारहों महीने टांकों और झरनों से पुष्कल जलापूर्ति होती रहती है। दुर्ग के भीतर अन्न, घृत व अन्य खाद्य सामग्री सुरक्षित रखने के लिए विशाल भंडार बने हुए हैं। यदि यूरोपीय तकनीक को अपनाते हुए इसका जीर्णोद्धार करवाया जाय तो यह दूसरा जिब्राल्टर बन सकता है। ” कर्नल ब्राउटन ने तारागढ़ को दुर्भेद्य रूप देने में दुर्गम पहाड़ी के योगदान पर प्रकाश डालते हुए ठीक ही लिखा है –
Its principal strength doubtless lies in the ruggedness and acclivity of the hill upon which it is situated.
तारागढ़ (Taragarh Fort Ajmer) राजस्थान के ही नहीं, बल्कि भारत के प्राचीनतम गिरि दुर्गों में से एक है। इतिहासकार हरबिलास शारदा’ ने ‘ अखबार-उल-अखयार’ को उद्धृत करते हुए लिखा है कि तारागढ़ कदाचित भारत का प्रथम गिरि दुर्ग है। राजपूताना के मध्य में अवस्थित इस प्राचीन दुर्ग ने अपनी विशिष्ट सामरिक स्थिति और महत्त्व के कारण इतिहास को अनेक करवटें लेते देखा है। सातवीं शताब्दी ई० में अपने निर्माण से लेकर उन्नीसवीं शताब्दी में ब्रिटिश आधिपत्य तक की दीर्घ अवधि में यह वीरता और शौर्य की अनेक रोमान्चक घटनाओं का साक्षी रहा है ।
तारागढ़ को प्रायः प्रत्येक युग में आक्रमणों का सामना करना पड़ा । दुर्दान्त आक्रान्ता महमूद गजनवी ने 1024 ई० में तारागढ़ लेने के लिए उस पर घेरा डाला लेकिन स्वयं घायल हो जाने के कारण, घेरा उठा लिया। तदनन्तर तराइन के द्वितीय युद्ध में पराक्रमी पृथ्वीराज चौहान तृतीय की पराजय के बाद तारागढ़ पर मुहम्मद गौरी ने अधिकार कर लिया। थोड़े समय के लिए पृथ्वीराज चौहान के छोटे भाई हरिराज ने इसे पुनः हस्तगत कर लिया लेकिन कुतुबुद्दीन ऐबक ने उससे वापस छीन लिया ।
तत्पश्चात इस दुर्ग पर मेरों और फिर राजपूतों का आधिपत्य रहा। राणा कुम्भा के शासनकाल में राव रणमल ने तारागढ़ को सीसोदियों के लिए जीत लिया। कुछ समय के लिए यह दुर्ग माँडू के सुलतान के कब्जे में भी रहा। परन्तु 1505 ई० में मेवाड़ के राणा रायमल के पुत्र पृथ्वीराज ने मुस्लिम गवर्नर को मारकर इस दुर्ग पर अपना अधिकार स्थापित किया। इसके बाद गुजरात के सुलतान बहादुरशाह ने सीसोदियों के को परास्त कर 1533 ई० में तारागढ़ पर अधिकार कर लिया।

तदनन्तर तारागढ़ पर मेड़ता के राव वीरमदेव और फिर जोधपुर के राव मालदेव का प्रभुत्व रहा। मालदेव ने इस दुर्ग का जीर्णोद्धार करवाया तथा किले के ऊपर अरहठ से पानी पहुँचाने का प्रबन्ध किया। तत्पश्चात शेरशाह सूरी और फिर उसके गवर्नर हाजीखाँ के अधिकार में रहने के बाद यह दुर्ग अकबर के समय मुगलों के अधिकार में आ गया। शाहजहाँ ने तारागढ़ अपने विश्वस्त सामन्त विट्ठलदास गौड़ को प्रदान कर दिया जिसने इस दुर्ग का जीर्णोद्धार करवाया तथा उसकी सुरक्षा व्यवस्था को मजबूत किया।
शाहजहाँ के पुत्रों में उत्तराधिकार के लिए जो संघर्ष हुआ, उसी क्रम में धौलपुर युद्ध में शाही सेना की पराजय के बाद शाहजादा दाराशिकोह ने तारागढ़ दुर्ग में आश्रय लिया। इस पर औरंगजेब ने इस दुर्ग को घेर लिया और भीषण युद्ध के बाद उस पर अधिकार कर लिया। 1659 ई० में तारागढ़ जोधपुर के महाराजा अजीतसिंह और फिर अभयसिंह के अधिकार में रहा। 1756 ई० में मरहठा सेनानायक जयप्पा सिन्धिया की नागौर में हत्या हो जाने पर महाराजा विजयसिंह ने तारागढ़ मरहठों को मूंडकटी (हत्या के फलस्वरूप बतौर हर्जाने) में दे दिया।
लेकिन 1787 ई० में तूंगा की लड़ाई में म की पराजय होते ही राठौड़ों ने पुन: इस दुर्ग पर अपना अधिकार कर लिया। तत्पश्चात् कुछ वर्षों तक सिन्धिया के आधिपत्य में रहने के बाद यह दुर्ग 1818 ई० में अंग्रेजों के नियन्त्रण में आ गया। अंग्रेज गवर्नर जनरल लार्ड विलियम बैंटिक ने 1832 ई० में संभावित उपद्रव की आशंका से इस किले की प्राचीर और अन्य बहुत सारा भाग तुड़वा दिया तथा नसीराबाद में ब्रिटिश छावनी के सैनिक अधिकारियों के स्वास्थ्य लाभ के नाम पर इस ऐतिहासिक दुर्ग का सामरिक महत्त्व ही समाप्त कर दिया ।
अजयमेरु दुर्ग (तारागढ़) का वर्तमान स्वरूप
तारागढ़ वर्तमान में सर्वथा भग्न और जर्जर अवस्था में है तथापि अपने इस रूप में भी प्राचीन गौरव गरिमा के कारण इसका एक निराला आकर्षण है। इसके प्रमुख प्रवेश द्वारों में विजयपोल, लक्ष्मीपोल, फूटा दरवाजा, भवानीपोल, हाथीपोल, अकोट दरवाजा तथा बड़ा दरवाजा आदि उल्लेखनीय हैं।
तारागढ़ की प्राचीर में 14 विशाल बुजें हैं जिनमें प्रमुख घूंघट, गूगड़ी तथा फूटी बुर्ज, नक्कारची की बुर्ज, शृंगार-चंवरी बुर्ज, आरपार का अत्ता, जानू नायक की बुर्ज, पीपली बुर्ज, इब्राहीम शहीद की बुर्ज, दोराई बुर्ज, बाँदरा बुर्ज, इमली बुर्ज, खिड़की बुर्ज और फतेह बुर्ज आदि हैं। इनके अलावा सैय्यद बुर्ज और हुसैन बुर्ज उल्लेखनीय हैं।
किले के भीतर पाँच बड़े जलाशय हैं, जिनमें नाना साहब का झालरा, गोल झालरा, इब्राहीम का झालरा और बड़ा झालरा उल्लेख्य हैं। तारागढ़ के भीतर ऊँचाई पर प्रसिद्ध मुस्लिम सन्त मीरां साहेब की दरगाह भी है। डॉ० गोपीनाथ शर्मा के अनुसार इन्होंने 1202 ई० में किले की रक्षार्थ अपने प्राणों की आहुति दी थी। तारागढ़ की पहाड़ी के ठीक नीचे एक प्राचीन गुफा शीशाखान है जो गर्मियों में बिल्कुल ठंडी और शीत ऋतु में गर्म रहती है।
भवत: यह गुफा फाईसागर के निकट चामुण्डा माता के मंदिर की पहाड़ियों तक गई है जिसके विषय में यह जनश्रुति है कि अंतिम हिन्दू सम्राट पृथ्वीराज चौहान इस गुफा के रास्ते उक्त देवी मन्दिर में दर्शन हेतु जाया करते थे। गत वर्ष तारागढ़ के पर्वतांचल में एक छोटी पहाड़ी पर स्थापित की गई प्रतापी नरेश पृथ्वीराज चौहान की प्रतिमा ने तो मानो तारागढ़ के सौन्दर्य को द्विगुणित कर दिया है। सारतः तारागढ़ अतीत की एक अनमोल ऐतिहासिक और सांस्कृतिक धरोहर संजोये हुए है। इस किले से सम्बन्धित यह दोहा लोक में इसकी प्रसिद्धि का द्योतक है –
गौड़ पंवार सिसोदिया, चहुवाणां चितचोर ।
तारागढ़ अजमेर रो, गरवीजै गढ़ जोर ।।
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