मांडलगढ़ दुर्ग – मेवाड़ का प्रमुख किला

Kheem Singh Bhati
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मांडलगढ़ दुर्ग । मांडलगढ़ मेवाड़ के प्रमुख गिरि दुर्गों में से एक है जो अरावली पर्वतमाला की एक विशाल उपात्यका पर स्थित तथा हरी भरी सघन वनराजि से परिवेष्टित है। यह बनास, बेड़च और मेनाल नदियों के त्रिवेणी संगम के समीप स्थित होने से कौटिल्य द्वारा निर्देशित आदर्श दुर्ग की परिभाषा को भी चरितार्थ करता है जिसके अनुसार दुर्ग नदियों के संगम के बीच अवस्थित होने चाहिए।

वर्ष भर अतुल जलराशि से प्रवाहित होने वाली इन नदियों ने जहाँ एक ओर और उसके निकटवर्ती प्रदेश को सुरम्य और रमणीक बना दिया है वहीं इस दुर्ग को नैसर्गिक सुरक्षा भी प्रदान की है।

मांडलगढ़ दुर्ग
मांडलगढ़ दुर्ग

मांडलगढ़ दुर्ग उदयपुर से लगभग 100 मील उत्तर पूर्व में है। यह किला विशाल पहाड़ी के अग्रभाग पर बना है जो समुद्रतल से लगभग 1850 फीट ऊँची है। वीर विनोद के अनुसार किले का पहाड़ पूर्व की तरफ ऊँचा और पश्चिम में नीचा झुक गया है। इस पर स्थित मांडलगढ़ दुर्ग लगभग आधा मील क्षेत्र में फैला है जिसकी प्राचीर में अनेक सुदृढ बुर्जे बनी हैं। कटोरेनुमा अथवा मंडलाकृति का होने के कारण ही सम्भवतः इसका नाम मांडलगढ़ पड़ा ।

यथा – भग्नो विद्युत मंडलाकृति गढो जित्वा समस्तानरीन ।

मांडलगढ़ दुर्ग

मांडलगढ़ की सुरक्षा व्यवस्था का कमजोर बिन्दू किले के उत्तर में लगभग आधा मील पर स्थित वह पहाड़ है जो नकट्या चौड़ अथवा बीजासण का पहाड़ कहलाता है। दुर्ग पर तोपों के गोले बरसाने हेतु आक्रान्ता के लिए यह वरदान स्वरूप था । इतिहासकाल कर्नल टॉड ने मांडलगढ़ दुर्ग के बारे में लिखा है – “It is by no means formidable and may be about four furlongs in length, with a low rampart wall and bastions encircling the crest of the hill”

दुर्भेद्य न होते हुए भी यह किला अपने अटूट जल भंडार और नैसर्गिक सुरक्षा कवच के कारण दीर्घकाल तक शत्रु के घेरे को सहन करने में सक्षम था ।

मांडलगढ़ दुर्ग
मांडलगढ़ दुर्ग

मांडलगढ़ दुर्ग कब बना और इसका निर्माता कौन था इस बारे में प्रामाणिक जानकारी का अभाव है। वीर विनोद में इस किले के निर्माण के सम्बन्ध में एक जनश्रुति का उल्लेख हुआ है –

“मांडिया नामक भील को बकरियाँ चराते वक्त एक पत्थर (पारस) मिला जिस पर उसने अपना तीर घिसा और वह तीर सुवर्ण का हो गया। यह देखकर वह उस पारस को चानणा नामक गूजर के पास ले गया जो वहाँ अपने मवेशी चरा रहा था । गूजर समझदार था, उसने भील से वह पत्थर ले लिया और यह किला बनवाकर उसी मांडिया भील के नाम पर इसका नाम मांडलगढ़ रखा और बहुत कुछ फय्याजी (उदारता) करके अपना नाम मशहूर किया। उसने वहाँ सागर और सागरी पानी के दो निवाण (तालाब) भी बनवाये ।”

अन्य इतिहास ग्रन्थों में भी इस जनश्रुति का उल्लेख हुआ है । ऐतिहासिक दृष्टि से वीर विनोद ने अजमेर के चौहान शासकों के द्वारा मांडलगढ़ दुर्ग का निर्माण कराने की सम्भावना प्रकट की है। इतिहासकार ओझाजी ने भी अपने उदयपुर राज्य के इतिहास में यही मत प्रकट किया है। यथा- “यह किला पहले अजमेर के चौहानों के राज्य में था और सम्भव है कि उन्होंने ही इसे बनवाया हो ।”

इतिहासकार कर्नल टॉड ने एक बालनोत सोलंकी (सरदार) द्वारा मांडलगढ़ का जीर्णोद्धार करवाये जाने का उल्लेख किया है। जब शहाबुद्दीन मुहम्मद गौरी ने पृथ्वीराज चौहान को हराने के बाद चौहानों से अजमेर का राज्य छीना तो मांडलगढ़ व उसके निकटवर्ती प्रदेश पर भी मुस्लिम आधिपत्य स्थापित हो गया। सुलतान अलाउद्दीन खिलजी की मृत्यु के पश्चात दिल्ली के सुलतानों की कमजोर स्थिति का लाभ उठाकर बंबावदे के हाड़ाओं ने मांडलगढ़ पर अधिकार कर लिया।

प्रारंभ में मेवाड़ के शासकों के साथ उनके मित्रतापूर्ण सम्बन्ध रहे लेकिन महाराणा क्षेत्रसिंह के समय उनमें किसी कारणवश शत्रुता हो गयी । फलस्वरूप महाराणा क्षेत्रसिंह ने मेवाड़ की विशाल सेना के साथ हाड़ाओं पर चढ़ाई की और युद्ध में उन्हें विपुल क्षति पहुँचाकर मांडलगढ़ पर अधिकार कर लिया। शृंगी ऋषि शिलालेख में इस विजय का महत्त्व प्रकट करते हुए कहा गया है,- ‘राणा क्षेत्रसिंह ने अपने भुजबल से शत्रुओं को मारकर प्रसिद्ध मंडलाकृतिगढ़ (मांडलगढ़) को भग्न (विध्वंस) किया जिसे बलवान दिल्लीपति अलावदीन (अलाउद्दीन खिलजी) स्पर्श भी करने न पाया था ।

मांडलगढ़ दुर्ग
मांडलगढ़ दुर्ग

बम्बावदे के हाड़ा शासक महादेव के विक्रम संवत 1446 (1389ई० ) के शिलालेख से भी प्रकट होता है कि वहाँ के हाड़ा राणा क्षेत्रसिंह के अधीन हो गये थे । इतिहासकार फरिश्ता के अनुसार राणा लाखा (लक्षसिंह) के शासनकाल में गुजरात के मुजफ्फरखाँ ने मांडलगढ़ पर चढ़ाई कर उसे घेर लिया। इस दौरान किले में महामारी फैल गयी जिससे हाड़ा राय दुर्गा ने सन्धि का प्रस्ताव किया।

मुजफ्फरखाँ स्त्रियों और बच्चों के विलाप से द्रवित हो गया और बहुत सा सोना व रत्न लेकर वापस लौट गया। लेकिन इतिहासकार ओझा जी ने गुजरात की फारसी तवारीख मिरात ए सिकन्दरी के आधार पर लिखा है कि मुजफ्फरखाँ का उपर्युक्त अभियान मांडू पर हुआ था न कि मांडलगढ़ पर। अतः पर्याप्त ऐतिहासिक साक्ष्य के अभाव में यह घटना संदेहास्पद लगती है।

तद्नन्तर आन्तरिक विग्रह के फलस्वरूप मेवाड़ के शासकों की निर्बल स्थिति से लाभ उठाकर हाड़ाओं ने फिर से मांडलगढ़ पर अधिकार कर लिया। लेकिन हाड़ा अधिक समय तक मांडलगढ़ पर अधिकार नहीं रख पाये क्योंकि विक्रम संवत 1496 के रणकपुर शिला पता चलता है कि राणा कुम्भा ने मांडलगढ़ तथा हाड़ौती के निकटवर्ती प्रदेश को जीतकर वापस मेवाड़ राज्यान्तर्गत सम्मिलित कर लिया।

राणा के शासनकाल में मालवा के सुलतान महमूद खलजी ने मांडलगढ़ पर दो तीन बार जोरदार आक्रमण किये। अपने प्रारंभिक आक्रमणों में वह किले पर अधिकार नहीं कर पाया लेकिन 1457 ई० में दीर्घकालिक घेरे के बाद उसे मांडलगढ़ लेने में सफलता मिल गयी । भीषण युद्ध के बाद मालवा के सुलतान ने पहले किले के निचले भाग पर अधिकार किया तथा फिर तोपों के जोरदार हमले से किले की प्राचीर व पेयजल स्रोतों को क्षति पहुँचायी जिससे किले का पतन हो गया ।

इसके बाद मुगल बादशाहों ने अपने शासनकाल में मांडलगढ़ के सामरिक महत्त्व को दृष्टिगत रखते हुए इसे मेवाड़ के प्रवेश द्वार के रूप में अपने सैनिक अभियानों का केन्द्र बनाया। मुगल बादशाह अकबर ने 1567 ई० में चित्तौड़ पर आक्रमण करने से पहले अपने सेनानायकों आसफखाँ और वजीरखाँ के नेतृत्व में एक विशाल सेना मांडलगढ़ पर भेजी जिसने वहाँ के दुर्गाधिपति बालनोत सोलंकी सरदार को परास्त कर किले पर अधिकार कर लिया।

इतिहासकार कर्नल टॉड के अनुसार यह सोलंकी (चालुक्य) सामन्त आन्हिलवाड़ पाटन के राजवंश से था तथा टोंक-टोडा (टोडारायसिंह) की उपशाखा से भी उसका घनिष्ट सम्बन्ध था। उसने अपने आधिपत्य के दौरान मांडलगढ़ के किले का जीर्णोद्धार करवाया था ।

मुगलों के अधिकार में आने के बाद अकबर की शाही सेना ने मांडलगढ़ को केन्द्र बनाकर राणा प्रताप के विरुद्ध सैनिक अभियान किये। 1576 ई० के प्रसिद्ध हल्दीघाटी युद्ध से पहले कुंवर मानसिंह ने लगभग एक महीने तक मांडलगढ़ में रहकर शाही सेना को युद्ध के लिए तैयार किया था।

हल्दीघाटी की लड़ाई के बाद भी आम्बेर के जगन्नाथ कछवाहा तथा खंगारोत शाखा के प्रधान राव खंगार ने निकटवर्ती पुर (पुर मांडल) में शाही थानों की रक्षा करते हुए वीरगति प्रायी जिनके भव्यं स्मारक वहाँ मेजा बांध के किनारे अद्यावधि विद्यमान हैं । औरंगजेब के शासनकाल में मेवाड़ के महाराणा राजसिंह ने मुगल सैनिकों को खदेड़ कर मांडलगढ़ पर अधिकार कर लिया था । तत्पश्चात यह किला किशनगढ़ नरेश रूपसिंह राठौड़ की जागीर में रहा जिन्होंने किले के भीतर कुछ महल इत्यादि बनवाये ।

काल के क्रूर प्रवाह को झेलता हुआ मांडलगढ़ आज भी शान से खड़ा हुआ स्वर्णिम अतीत की अमूल्य धरोहर के रूप में है। किले के प्रमुख भवनों में ऋषभदेव का जैन मंदिर, दो प्राचीन शिवमन्दिर ऊंडेश्वर और जलेश्वर महादेव, सैनिकों के आवासगृह, अन्न भंडार, रूपसिंह द्वारा निर्मित महल, सागर और सागरी जलाशय, मेहता अगरचन्द द्वारा निर्मित दो पातालतोड़ कुए तथा किले के पूर्व में जालेसर और उत्तर में देवसागर तालाब प्रमुख जल स्रोत हैं।

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