बीकानेर का किला (जूनागढ़)। उत्तरी राजस्थान के सुदृढ़ भूमि दुर्गों में बीकानेर का जूनागढ़ उल्लेखनीय है । चारों तरफ से थार मरुस्थल से घिरा यह किला धान्वन दुर्ग की कोटि में आता है। लाल पत्थरों से बने इस भव्य किले का निर्माण बीकानेर के प्रतापी शासक रायसिंह ने करवाया था जो मुगल बादशाह अकबर और फिर जहाँगीर का प्रमुख एवं विश्वस्त मनसबदार था । रायसिंह ने मुगलों की तरफ से गुजरात, काबुल और दक्षिण के अनेक युद्ध अभियानों में भाग लिया व महती सफलतायें अर्जित कीं।
अकबर के शासनकाल में रायसिंह चार हजारी का मनसबदार था जो जहाँगीर के समय में बढ़कर पाँच हजारी का हो गया । वस्तुत: बीकानेर के पुराने गढ़ की नींव तो आदि में बीकानेर के यशस्वी संस्थापक राव बीकाजी ने वि० संवत 1542 (1485 ई०) में रखी थी। उनके द्वारा निर्मित प्राचीन किला नगर प्राचीर (शहरपनाह) के भीतर दक्षिण पश्चिम में एक ऊँची चट्टान पर विद्यमान है जो ‘बीकाजी की टेकरी’ कहलाती है।
बीकानेर के दिवंगत महाराजा करणीसिंह ने इस संदर्भ में लिखा है- लक्ष्मीनाथ जी के मन्दिर के पास बीकाजी की टेकरी और पूगल के पुराने किले छोटे और मिट्टी की कच्ची ईंटों के बने हुए हैं। पश्चात् महाराजा रायसिंह ने बीकानेर के वर्तमान भव्य दुर्ग जूनागढ़ का निर्माण करवाया ।

दयालदास की ख्यात के अनुसार महाराजा रायसिंह जब शाही सेना के साथ दक्षिण के अभियान पर था (संवत 1642) तब उसने बुरहानपुर से अपने मंत्री करमचन्द (बाछावत) के नाम खास रुक्का भेजकर नया कोट (दुर्ग) बनवाने का आदेश दिया। अत: मौजूदा गढ़ (पहले से विद्यमान किसी प्राचीन गढ़) के स्थान पर नींव भरी गयी । यथा – महाराज रौ रूको खास दसकता करमचन्द जी नाम आयो । जिणमें नवै कोट करावणरौ हुक्म आयो । सू हमार गढ़ छै जठै नीम भरी। सं 1645 वैसाख सुदी 3, अरू सं 1650 गढ़ त्यार हुवौ ।
उक्त ख्यात के अनुसार गढ़ की तफसील यह है-
कोट की समचौरस सफील (दीवार) है।
पूर्व की दीवार 401 गज,
दक्षिण की दीवार 403 गज,
पश्चिम की दीवार 407 गज,
उत्तर की दीवार 406 गज,
कोट की सफील 19 गज ऊँची, महलायत के नीचे औसार 20 गज और गज 10 कोट व परकोटे के नीचे हैं।
परकोटे के बाहर खाई 20 गज चौड़ी है। 25 गज गहरी है। इस तरह गढ़ का निर्माण करवाया । जैसाकि दयालदास की ख्यात में लिखा है नये गढ़ की नींव मौजूदा पुराने गढ़ के स्थान पर ही भरी गयी थी, अत: संभव है इसी कारण इसे जूनागढ़ कहा गया। नया गढ़ राव बीका द्वारा निर्मित तथा जूनागढ़ वह जो पुराने जमाने से चले आ रहे किसी गढ़ के स्थान पर निर्मित हुआ।
बीकानेर का किला (जूनागढ़)
बीकानेर के किले के प्रवेश द्वार पर उत्कीर्ण दुर्ग निर्माता महाराजा रायसिंह की प्रशस्ति के अनुसार इस किले की नींव विक्रम संवत 1645 की फागुन सुदी 12 को रखी गयी। दुर्ग निर्माण की यह तिथि अधिक प्रामाणिक मालूम होती है। बीकानेर के राजाओं द्वारा मुगलों की अधीनता स्वीकार करने उनसे राजनैतिक मित्रता और निकट सम्बन्ध की वजह से बीकानेर के इस किले पर कोई बड़े आक्रमण नहीं हुए। बल्कि बीकानेर को तो अधिकांशत: अपने सजातीय बन्धुओं जोधपुर और नागौर के राठौड़ों के आक्रमणों को झेलना पड़ा।
1733 ई० में नागौर के अधिपति बखतसिंह ने अपने भाई जोधपुर के महाराजा अभयसिंह के साथ एक विशाल सेना लेकर बीकानेर पर चढ़ाई की। इस सेना ने जूनागढ़ को घेर लिया और लगभग चार महीने तक संघर्ष चला। लेकिन बीकानेर के तत्कालीन महाराजा सुजानसिंह और उनके कुंवर जोरावरसिंह ने किले की सुरक्षा की सुदृढ़ व्यवस्था की जिससे यह आक्रमण विफल हो गया। इस पर अभयसिंह और बखतसिंह नागौर लौट गये।
बीकानेर की पहली चढ़ाई में विफल होने पर भी बखतसिंह ने नागौर विजय की अभिलाषा नहीं छोड़ी और दूसरी बार 1743 ई० में बीकानेर पर अभियान किया। इस बार बखतसिंह ने कूटनीति का आश्रय लिया तथा जूनागढ़ के किलेदार दौलतसिंह साँखला और उसके सहयोगियों को लालच देकर अपनी ओर मिला लिया तथा षड्यन्त्रकारियों ने गुप्त रूप से बखतसिंह की सेना को किले में प्रवेश कराने के लिए किले के दरवाजों के ताले खोल दिये।

लेकिन इस योजना की क्रियान्विति से पहले ही षड्यन्त्र का भंडाफोड़ हो गया और महाराजा सुजानसिंह ने समय रहते किले की सुरक्षा का प्रबन्ध कर लिया। बखतसिंह की सेना जब वहाँ पहुँची तो उसे चुनौती देने के लिए किले से तोपें दागी गयीं, जिससे बखतसिंह ने जान लिया कि षड्यन्त्र का भेद खुल गया है और वह निराश होकर वापस लौट गया। 1740 ई० में जोधपुर के महाराजा अभयसिंह ने बीकानेर पर चढ़ाई की। (इस बार उसका छोटा भाई बखतसिंह पारस्परिक मनमुटाव हो जाने के कारण साथ नहीं आया।
अबकी बार बीकानेर के कुछ विद्रोही सरदारों-भादरा के ठाकुर लालसिंह, चुरू के संग्रामसिंह और महाजन के ठाकुर भीमसिंह ने जोधपुर का साथ दिया जिससे स्थिति और भी विकट हो गयी। इस शक्तिशाली सेना ने बीकानेर नगर में बहुत विध्वंस किया तथा जूनागढ़ पर तोपों के गोले बरसाये। संकट की इस घड़ी में बीकानेर के महाराजा जोरावरसिंह ने जयपुर नरेश सवाई जयसिंह से सहायता करने का अनुरोध किया और एक विशेष दूत आनन्द रूप इस आशय का खरीता लेकर सवाई जयसिंह के पास भेजा गया। उसके साथ यह दोहा भी लिखकर भेजा –
अभो ग्राह बीकाण गज, मारू समद अथाह।
गरुड़ छाँड गोविन्द ज्यूँ, सहाय करो जयशाह ।
इस पर महाराजा सवाई जयसिंह ने जोधपुर के महाराजा अभयसिंह को (जो उनके दामाद भी थे) चेतावनी देते हुए सन्देश भेजा कि वह तत्काल बीकानेर का घेरा उठा ले । अभयसिंह द्वारा इसमें विलम्ब करने पर सवाई जयसिंह ने तीन लाख की विशाल सेना के साथ जोधपुर पर चढ़ाई कर दी। अब अभयसिंह को विवश होकर बीकानेर का घेरा उठाना पड़ा।
इस प्रकार जयपुर की मदद से बीकानेर पर आया एक बड़ा संकट टल गया। बीकानेर के महाराजा जोरावरसिंह ने इस संकट के समय एक सफेद चील को देखकर अपनी कुलदेवी करणीजी को बड़े मार्मिक शब्दों में याद किया था।
डाढाली डोकर थई, का तूं गई विदेस ।
खून बिना क्यों खोसजे, निज बीका रो देस।।
किले का स्थापत्य बीकानेर का किला (जूनागढ़)
जूनागढ़ दुर्ग चतुष्कोण या चतुर्भुजाकृति का है तथा लगभग 1078 गज की परिधि में फैला है। किले की प्राचीर बहुत सुदृढ़ है। इसमें बराबर के से अन्तराल पर 37 विशाल बुजें बनी हुई हैं जो लगभग 40 फीट ऊँची हैं। किले के चारों ओर खाई या परिखा बनी हुई है जो लगभग 20-25 फीट गहरी तथा इतनी ही चौड़ी है। किले के भीतर जाने के लिए दो प्रमुख प्रवेश द्वार हैं। पूर्वाभिमुख प्रवेश द्वार का नाम कर्णपोल है तथा पश्चिमी दरवाजा चाँदपोल कहलाता है।

इन दोनों दरवाजों के अलावा किले में पाँच आन्तरिक द्वार हैं जो दौलतपोल, फतेहपोल, रतनपोल, सूरजपोल और ध्रुव पोल कहलाते हैं। किले के निर्माण के समय इसका विस्तार सूरजपोल तक ही था और अन्य दरवाजे परवर्ती शासकों द्वारा बनवाये गये। सूरजपोल पीले पत्थरों से बना है। शायद पीले रंग का पत्थर जैसलमेर से लाया गया हो। सूरजपोल दरवाजे पर इस किले के संस्थापक राजा रायसिंह की प्रशस्ति उत्कीर्ण है, जिससे उसके शासनकाल की प्रमुख घटनाओं का प्रामाणिक विवरण ज्ञात होता है।
दुर्ग के इसी प्रवेश द्वार पर अपने वीर पतियों के साथ स्वर्गारोहण करने वाली वीरांगनाओं के हाथ के छापे भी अंकित हैं। सूरजपोल के पार्श्व में गणेशजी का छोटा सा मन्दिर है। सूरजपोल की एक अन्य विशेष बात यह है कि इसके दोनों तरफ 1567 ई० के चित्तौड़ के साके में वीरगति पाने वाले दो इतिहास प्रसिद्ध वीरों जयमल मेड़तिया और उनके बहनोई आमेट के रावत पत्ता सिसोदिया की गजारुद मूर्तियाँ स्थापित हैं जो उनके उद्भट पराक्रम और बलिदान का स्मरण कराती हैं।
बादशाह अकबर ने भी आगरा के किले के प्रवेश द्वार पर वीरवर जयमल और पत्ता की ऐसी ही गजारूद प्रतिमायें स्थापित करवायी थीं। संभवत: अकबर से ही महाराजा रायसिंह को इसकी प्रेरणा मिली हो। आगरा के किले के दोनों ओर स्थापित ये प्रतिमायें 1633 ई० तक वहाँ विद्यमान थीं। फ्रांसीसी यात्री बर्नियर ने इन्हें देखा था जिसका उल्लेख उसने अपने यात्रा विवरण में किया है। आगे चलकर औरंगजेब ने इन प्रतिमाओं को वहाँ से हटवा दिया।
जूनागढ़ बाहर से देखने पर जितना सुदृढ़ है भीतर से उतना ही भव्य और सुन्दर है। किले के भीतर विशाल चौक के एक तरफ आलीशान महल बने हुए हैं जो अपने अद्भुत शिल्प और सौन्दर्य के कारण दर्शनीय हैं। जनानी ड्योढ़ी से लेकर त्रिपोलिया तक पाँच मंजिले महलों की एक लम्बी श्रृंखला सुन्दर और नयनाभिराम लगती है। महाराजा रायसिंह और बीकानेर के परवर्ती शासकों द्वारा निर्मित महल स्थापत्य कला के उत्कृष्ट रूप का प्रतिनिधित्व करते हैं। जूनागढ़ में विनिर्मित भव्य महलों के निर्माण में बीकानेर के प्राय: सभी महाराजाओं का योगदान रहा है।

इनमें रायसिंह का चौबारा, फूल महल, चन्द्र महल, गज मन्दिर, अनूप महल, रतन निवास, रंग महल, कर्ण महल, दलेल निवास, छत्र महल, लाल निवास, सरदार निवास, गंगा निवास, चीनी बुर्ज, सुनहरी बुर्ज, विक्रम विलास, सूरत निवास, मोती महल, कुंवरपदा और जालीदार बारहदरियाँ प्रमुख व उल्लेखनीय हैं।
जूनागढ़ के ये राजप्रासाद राजस्थान की समन्वित संस्कृति के प्रतीक हैं क्योंकि इनके निर्माण में हिन्दू और मुस्लिम कला शैलियों का सुन्दर समन्वय हुआ है। इन महलों की बनावट परम्परागत राजपूत पद्धति पर आधारित है वहीं इनकी सजावट और अलंकरण में मुगल शैली की प्रधानता है। जैसाकि बीकानेर के अंतिम महाराजा डॉ० करणीसिंह ने अपने शोध प्रबन्ध में लिखा है- बीकानेर के किले (जूनागढ़) में स्थापत्य सौन्दर्य के अनेक ऐसे रूप हैं जिन्हें देखकर इतिहासकार को फतेहपुर सीकरी और दिल्ली के लाल किले की याद आती है।
उदाहरणत: हरमन्दिर का लकड़ी पर काम किया हुआ दरवाजा अकबरी दरवाजों से काफी मिलता जुलता है। सूरसिंह के शासनकाल (1613-31 ई०) में बने भवनों की शैली अकबर के समय के मुगल स्थापत्य का प्रतिनिधित्व करती है। अनूपसिंह (1669-98 ई०) जो न केवल महान योद्धा था बल्कि विद्वान और कलाप्रेमी था । उसके शासनकाल में निर्मित भवनों में सजे हुए सफेद संगमरमर का उपयोग शाहजहाँ की शैली से मिलता जुलता है।
बीकानेर के अधिकांश राजा मुगल बादशाहों के मनसबदारों की हैसियत से दक्षिण भारत सहित अनेक दूरस्थ प्रदेशों में सैनिक अभियानों पर गये जहाँ से ये गुणग्राहक राजा अनेक कलाकारों को अपने साथ लाये और उन्हें अपना संरक्षण व राज्याश्रय दिया । विशेषकर उस समय के उस्ता चित्रकारों द्वारा बनाये गये चित्र संग्रह की दुनिया भर के कलाप्रेमियों ने प्रशंसा की है 12 जूनागढ़ के इन महलों के भीतर कई जगह काँच की पच्चीकारी और सुनहरी कलम का बहुत सुन्दर काम हुआ है।

महलों की दीवारों पर किये गये रंगीन प्लास्टर ने उनकी शोभा को द्विगुणित कर दिया है। अनूप महल के सौन्दर्य की प्रशंसा करते हुए डॉ० करणीसिंह ने लिखा है-3 “बीकानेर के किले में अनूप महल जिसमें सोने की कलम से काम किया हुआ है एक उत्कृष्ट कृति है और अपने प्रकार के सर्वश्रेष्ठ नमूनों में से एक है। दीवारों पर सोने की पच्चीकारी का जो काम किया गया उसकी मूल ताजगी आज भी विद्यमान है।
भव्य अनूप महल में बीकानेर के राजाओं का राजतिलक होता था। इसमें रखा सुन्दर हिंडोला कला की दृष्टि से उत्कृष्ट है। इसके अलावा फूल महल और गज मन्दिर शीशे की बारीक कटाई व फूल पत्तियों के सजीव चित्रांकन के लिए प्रसिद्ध हैं, वही गंगा निवास में लाल रंग के पत्थरों पर कोराई का काम देखते ही बनता है। सबसे ऊपर की मंजिल पर बना छत्र निवास अपनी सुन्दर लकड़ी की छत व कृष्ण की रासलीला के सजीव चित्रण के कारण दर्शनीय है। हर मन्दिर में विवाह, गणगौर व अन्य उत्सव होते थे।
जूनागढ़ के भीतर अनेक आवासीय भवन, पाकशाला, आतिश (अश्वशाला), शूतरखाना (उष्ट्रशाला), सुजान महल, डूंगर निवास, गुलाब निवास, शिव निवास, फीलखाना, संगमरमर का तालाब इत्यादि हैं। किले के भीतर महाराजा डूंगरसिंह द्वारा निर्मित एक ऊँचा और भव्य घंटाघर उसके सौन्दर्य में अभिवृद्धि करता है। दुर्गवासियों को जलापूर्ति के लिए रामसर और रानीसर दो अथाह जलराशि वाले कुएँ उल्लेखनीय हैं।
जूनागढ़ की एक प्रमुख विशेषता यह है कि इसके प्रांगण में दुर्लभ प्राचीन वस्तुओं, शस्त्रास्त्रों, देव प्रतिमाओं, विविध प्रकार के पात्रों तथा फारसी व संस्कृत में लिखे गये हस्तलिखित ग्रन्थों का बहुत समृद्ध संग्रहालय है। सारत : बीकानेर का यह भव्य दुर्ग इतिहास, कला और संस्कृति की बहुमूल्य धरोहर को संजोये हुए है जिसे देखने के लिए देशी विदेशी पर्यटक वहाँ आते हैं।
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