राजस्थान का ऐतिहासिक स्वरुप – प्राचीन राजस्थान

Kheem Singh Bhati
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राजस्थान का ऐतिहासिक स्वरुप। देशी रियासतों या रजवाड़ों का सामूहिक रूप से बोध कराने के लिए ‘राजस्थान’ शब्द का सर्वप्रथम प्रयोग प्रसिद्ध इतिहासकार कर्नल जेम्स टॉड ने अपनी पुस्तक ‘एनल्स एण्ड एन्टीक्वीटीज ऑफ राजस्थान’ में किया था। सन् 1947 में स्वतन्त्रता प्राप्ति के पश्चात् जब राजपूताना की देशी रियासतों के विलय के फलस्वरूप इस प्रदेश का पुनर्गठन हुआ तो इस नवगठित राज्य का कर्नल टॉड द्वारा प्रयुक्त राजस्थान नाम स्वीकार किया गया ।

वर्तमान राजस्थान राज्य के निर्माण की यह प्रक्रिया पाँच चरणों में पूरी हुई । 17 मार्च 1948 को सर्वप्रथम मत्स्य संघ का निर्माण हुआ जिसमें अलवर, भरतपुर, धौलपुर तथा करौली की रियासतें सम्मिलित थीं। इसके साथ ही 25 मार्च 1948 को एक अन्य वृहतर संघ का निर्माण हुआ जिसमें कोटा, टौंक, बून्दी, झालावाड़, प्रतापगढ़, डूंगरपुर, बांसवाड़ा किशनगढ़, शाहपुरा ये नौ रियासतें तथा दो चीफशिप लावा और कुशलगढ़- शामिल थीं।

तदनन्तर 18 अप्रेल 1948 को उदयपुर रियासत तथा इसके कुछ ही समय पश्चात् जयपुर, जोधपुर, बीकानेर तथा जैसलमेर के विलय के फलस्वरूप राजस्थान संघ का निर्माण हुआ जिसका 30 मार्च सन् 1949 को सरदार पटेल ने उद्घाटन किया। तत्पश्चात् पाँचवें चरण में मत्स्य संघ का भी वृहत्तर राजस्थान में विलय हो गया । सन् 1956 में राज्य पुनर्गठन आयोग की सिफारिशों के अनुसार आबू और अजमेर मेरवाड़ा भी राजस्थान में समाविष्ट कर लिये गये तथा वर्तमान राजस्थान राज्य का निर्माण हुआ ।

हालांकि प्रदेश या राज्य के अर्थ में राजस्थान का प्रयोग कर्नल टॉड द्वारा ही किया गया तथापि एक भिन्न अर्थ में राजस्थान शब्द का प्रयोग हमें कर्नल टॉड से भी पहले मिलता है । वस्तुतः मध्ययुगीन राजस्थानी साहित्य एवं इतिहास ग्रन्थों में राजस्थान सहित इसके अपभ्रष्ट रूपों’ ‘राजसथान’, ‘राजथान’, ‘राजथाण’ आदि का प्रचुर प्रयोग हुआ है जो किसी राज्य या प्रदेश विशेष का वाचक न होकर राजधानी के अर्थ में व्यवहृत हुआ है।

राजस्थान का ऐतिहासिक स्वरुप
राजस्थान का ऐतिहासिक स्वरुप

मुँहणोत नैणसी री ख्यात, जैसलमेर री ख्यात, कुंवरसी सांखलो सहित अन्य कई ग्रन्थों में राजस्थान शब्द राजधानी के अर्थ में प्रयोग होने के प्रचुर उदाहरण विद्यमान हैं। परन्तु राजपूताने के भूतपूर्व रजवाड़ों के लिए सामूहिक रूप से बोधक एक विशिष्ट भौगोलिक क्षेत्र या पृथक् राजनैतिक इकाई के रूप में इस प्रदेश को राजस्थान नाम कर्नल टॉड ने ही दिया जो स्वतन्त्रता प्राप्ति के पश्चात् वीरता और शौर्य की इस पावन भूमि के लिए स्वीकार किया गया ।

प्राचीन स्वरूप (राजस्थान का ऐतिहासिक स्वरुप)

यदि हम राजस्थान के प्राचीन इतिहास पर दृष्टि निक्षेप करें तो विदित होगा कि प्रस्तुत नामकरण से पूर्व राजस्थान प्रदेश के विविध भू-भाग भिन्न-भिन्न नामों से जाने जाते थे तथा समय-समय पर यहाँ विभिन्न राजवंशों का शासन रहा था । उदाहरणत: राजस्थान के सैक्त भू-भाग (जिसके अन्तर्गत मारवाड़ तथा थार रेगिस्तान का भू-क्षेत्र जैसलमेर, बीकानेर, बाड़मेर आदि जिले सम्मिलित थे) के लिए मरु या मरुदेश का उल्लेख हमें ऋग्वेद, महाभारत, वृहत्संहिता, आदि प्राचीन ग्रन्थों तथा रुद्रदामन के जूनागढ़ अभिलेख तथा पाल अभिलेखों में मिलता है।

आगे चलकर मरुदेश केवल मारवाड़ आदि रेतीले भू-भाग का ही वाचक न रहकर अधिक व्यापक अर्थ में प्रयुक्त होने लगा जैसाकि यहाँ की भाषा डिंगल या मारवाड़ी के लिए व्यवहृत शब्दों – मरुभाषा, मरुभूम-भाषा, मरुबानी आदि से प्रकट है। वस्तुत: यह मरुभाषा किंचित् स्थानीय परिवर्तनों के साथ समूचे राजस्थान प्रदेश की भाषा थी । मरुभाषा का सर्वप्रथम उल्लेख 8वीं – 9वीं शताब्दी में उद्योतन सूरी रचित कुवलयमाला में मिलता है। 12वीं शताब्दी तक आते आते मरुदेश संज्ञा अधिक व्यापक क्षेत्र के लिए प्रयुक्त होने लगी थी। सत्रहवीं शताब्दी के लगभग लिखित शक्तिसंगमतंत्र में मरुदेश का बहुत रोचक वर्णन हुआ है।

गुर्जरात्पर्व भागे त द्वारकातो हि दक्षिणे ।
मरुदेशो महेशानि उष्ट्रोत्पत्ति परायणः ।।

मरु के बाद ‘जांगल’ क्षेत्र का नाम आता है। वानस्पतिक दृष्टि से जांगल का अर्थ वह भू-भाग है जहाँ साधारणत: आकाश साफ रहता हो, जल और वनस्पति का अभाव हो तथा वृक्षों में शमी (खेजड़ी), कैर, पीलू और कंटकुंड का आधिक्य हो ।

राजस्थान का ऐतिहासिक स्वरुप
राजस्थान का ऐतिहासिक स्वरुप

महाभारत में प्रयुक्त ‘कुरु-जांगल’ एवं ‘मद्र-जांगल’ के उल्लेख से प्रतीत होता है कि जांगल के अन्तर्गत केवल राजस्थान का उत्तरार्द्ध भाग ही नहीं बल्कि पंजाब का दक्षिण पूर्वी भाग भी सम्मिलित था। मूलत: जांगल क्षेत्र [ जिसमें हर्ष (अनन्त प्रदेश) नागौर (श्वालक) व सांभर शामिल थे ] के अधीश्वर होने के कारण शाकम्भरी और अजमेर के चौहान नरेशों को प्राय: जांगलेश भी कहा जाता था तथा इसी जांगल क्षेत्र के अधिपति होने के कारण ही आगे चलकर बीकानेर के राजा ‘जंगलधर पातिसाह’ कहलाये।’

इसी जांगल क्षेत्र में जांगलकूप (जांगल) भी था, जहाँ श्रावक लिल्हन द्वारा भगवान शांतिनाथ की प्रतिमा प्रतिष्ठापित करवाये जाने का वि० संवत 1176 का अभिलेख मिला है। राजस्थानी इतिहास व साहित्यिक ग्रन्थों में जांगल का प्रचुर उल्लेख हुआ है। यथा- कुंवरसी सांखलो का यह उल्लेख – सांखलो खींवसी चरू सुकाल जांगल राज कैरे ।

राजस्थान का पूर्वी भाग (वर्तमान जयपुर, दौसा, अलवर तथा भरतपुर का कुछ भाग) मत्स्य कहलाता था जिसका शक्तिसंगमतंत्र में यों उल्लेख हुआ है –

पुलिन्दादुत्तरे, भागे कच्छाच्छ पश्चिमे शिवे ।
मत्स्य देशः समाख्यात: मत्स्य बाहुल्य कारकः ।।

इसका सर्वप्रथम उल्लेख हमें ऋग्वेद में मिलता है, जहाँ मत्स्य निवासियों को सुदास का शत्रु कहा गया है। महाभारत में मत्स्य राज्य की राजधानी विराटनगर (आधुनिक बैराठ) तथा मत्स्य राज्य का पाण्डवों का प्रबल पक्षधर के रूप में उल्लेख है। उनके अज्ञातवास के प्रसंग से जुड़े इस भू-भाग का अपना विशेष महत्त्व है । महाभारत में मत्स्यवासियों की सत्यवादिता की भी प्रशंसा की गयी है।

मत्स्यवासियों से ही अभिनतः सम्बद्ध साल्ववासी थे। प्रसिद्ध पुरातत्ववेत्ता जनरल कनिंघम का मत है कि साल्व जनपद की राजधानी ‘साल्वपुर’ ही वर्तमान अलवर है । जैसा कि सुविदित है वर्तमान जयपुर, दौसा तथा उसका समीपवर्ती प्रदेश लोक में ढूंढाड़ के नाम से प्रख्यात है। निर्जन अथवा वीरान प्रदेश के अर्थ में अथवा इस क्षेत्र की प्रमुख नदी ढूँढ के प्रवाह क्षेत्र के अन्तर्गत आने के कारण यह इलाका ढूँढाड़ कहलाया ।

राजस्थान का ऐतिहासिक स्वरुप
राजस्थान का ऐतिहासिक स्वरुप

शूरसेन जनपद के अन्तर्गत मधुरा सहित अलवर, भरतपुर, धौलपुर व करौली का सीमावर्ती क्षेत्र सम्मिलित था। रणथम्भौर के प्रसिद्ध चौहान शासक राव हम्मीर का मन्त्री रणमल्ल शूरवंशीय क्षत्रिय ही था । अपभ्रंश की एक हस्तप्रति में उपलब्ध वंशावली से पता चलता है कि शूरसेन जनपद या इसका अधिकांश भाग ‘भादानक’ अथवा ‘भानय’ के नाम से जाना जाता था जिसका विकृत रूप ही वर्तमान
‘बयाना’ है।’
इसी भाँति राजस्थान का दक्षिण पूर्वी भू भाग शिवि, दक्षिण का मेदपाट, (मेवाड़), बांगड़ (डूंगरपुर ) प्राग्वाट, मालव और गुर्जरत्रा तथा पश्चिम का माड, माडवल्ल तथा मारबाड़ और मेवाड़ के मध्य का भाग गोड़वाड़ आदि नामों से जाने जाते थे ।

शिवि जनपद चित्तौड़ का समीपवर्ती क्षेत्र था। चित्तौड़ से लगभग 7 मील उत्तर पूर्व में स्थित नगरी नामक प्राचीन गाँव में से उपलब्ध मुद्राओं पर उत्कीर्ण ‘मज्झिममिकया शिवि जनपदस्स’ से इसकी पुष्टि होती है। मालव भी मध्यदेश के मालवा भू-भाग में बसने से पहले काफी समय तक राजस्थान में रहे थे। टौंक के पास रैड़ की खुदाई से मिले सिक्कों पर उत्कीर्ण ‘मालव जनपदस्स से यह असंदिग्ध रूप से सिद्ध है कि ‘मालव-जनपद’ भी राजस्थान के इसी क्षेत्र के अन्तर्गत था ।

‘गुर्जर’ अथवा “गुर्जरत्रा’ नाम से अभिहित क्षेत्र में राजस्थान का दक्षिण पश्चिमी भू-भाग (सिवाणा, जालौर आदि) आता था जिसकी प्राचीन राजधानी भीनमाल थी। जैसाकि प्रसिद्ध चीनी यात्री युवानच्चांग (हेनसांग ) के यात्रा विवरण से संकेत मिलता है। आठवीं शताब्दी (778 ई.) में उद्योतन सूरी लिखित ‘कुवलयमाला’ में भी गुर्जरदेस तथा भिल्लमाल (भीनमाल) का उल्लेख हुआ है। ‘मेदपाट’ मेवाड़ का ही पुराना नाम है।

मेवाड़ के गुहिल राजवंश की स्थापना से पहले यहाँ कदाचित ‘मेदों’ या ‘मेरों’ का शासन था इसीलिए इसका प्राचीन नाम मेदपाट था। मेदपाट को ही ‘प्राग्वाट’ भी कहा जाता था, जैसा कि जयसिंह कलचूरि के अभिलेखों में मेवाड़ के राजाओं को प्राग्वाट नरेश लिखा होने से ज्ञापित होता है।

‘माड’ नाम जैसलमेर के लिए आज भी प्रचलित है, जिससे सम्बद्ध ‘मांड’ राग राजस्थान में अतिशय लोकप्रिय है। अन्य क्षेत्रीय नामों में वल्लमंडल, अनन्तगोचर आदि भी उपलब्ध होते हैं। घटियाला अभिलेख में कवक्क के त्रवणी वल्ल तथा माड में विख्यात हो जाने का उल्लेख है, जिससे अनुमान किया जा सकता है कि ‘वल्ल’ ‘माड’ का कोई समीपवर्ती भू-क्षेत्र रहा होगा ।

बागड़ राजस्थान में दो भू-क्षेत्रों का वाचक रहा है- (1) वर्तमान डूंगरपुर – बांसवाड़ा क्षेत्र का तथा (2) नरहड़ (पिल्गनी) भादरा, नोहर एवं कर्नाणा आदि भू-भाग का, जिसे जिनपाल संकलित खतरगच्छ पट्टावली’ में बागड़ के नाम से बहुश: अभिहित किया गया है ।।
चौहान नरेशों के राज्य शाकम्भरी एवं अजमेर को जांगल के साथ-साथ सपादलक्ष भी कहा जाता था।

आगे चलकर ‘सपादलक्ष’ शब्द चौहान अधिकृत क्षेत्र से इतर भू-भाग के लिए भी प्रयुक्त होने लगा, जिसमें जांगल, शेखावाटी से रणथम्भौर तक का भू-भाग, कोटा का कुछ भाग, मेवाड़ का मांडलगढ़ दुर्ग तथा बूँदी, अजमेर एवं किशनगढ़ का पश्चिमी भाग सम्मिलित था। इसके अलावा नाडौल के चौहानों का राज्य ‘सप्तशत’ के नाम से जाना जाता था।

इसी भाँति राजस्थान के विविध भू-भागों के लिए और भी अनेक नाम समय-समय पर प्रचलित रहे हैं, जो उस पर शासन करने वाले शासकवंश में हुए परिवर्तन के साथ या अन्य कारणों से परिवर्तित होते रहे हैं। उदाहरणत: खींची चौहानों द्वारा अधिकृत होने के कारण गागरोण व उसका समीपवर्ती क्षेत्र खींचीवाड़ा, झालाओं द्वारा शासित झालावाड़, राव शेखा के वंशजों द्वारा अधिकृत प्रदेश शेखावाटी, तंवर क्षत्रियों के अधीन नीमकाथाना तथा कोटपूतली का निकटवर्ती प्रदेश तोरावाटी या तंवरावाटी कहलाया।

इसके अलावा मेव बाहुल्य प्रदेश मेवात, मेरों की अधिकता के कारण अजमेर का निकटवर्ती इलाका मेरवाड़ा कहलाया । आदिवासी भीलों के बाहुल्य के कारण ही भीलवाड़ा ने अपना यह नाम पाया । इनमें से अनेक नामों के साथ राजस्थान के कई छोटे बड़े राजवंशों के उत्थान-पतन और उदय पराभव का इतिहास जुड़ा हुआ है। कई नाम ऐसे भी हैं जो काल के विनष्टकारी प्रभाव से मुक्त रह किसी प्रकार बचे रह गये हैं और आज भी लोकव्यवहार में अतिशय प्रचलित हैं।

कोटा-बून्दी क्षेत्र का हाड़ौती नाम इसका ज्वलन्त उदाहरण है । इसी भाँति मारोठ (मारवाड़) भू-भाग पर किसी समय गौड़ों का राज्य रहा था जिसके फलस्वरूप यह प्रदेश ‘गौड़ाटी’ कहलाया। औरंगजेब के राज्यकाल में गौड़ों के पराभव के बाद यह क्षेत्र यद्यपि रघुनाथसिंह के वंशज मेड़तियों के अधिकार में चला गया तब भी इसका पुराना नाम गौड़ाटी नहीं बदला । भैसलाना (जिला जयपुर) से उपलब्ध एक महत्त्वपूर्ण ताम्रपत्र’ में भी उसका यही नाम मिलता है ।

वस्तुत: राजस्थान के हर भौगोलिक क्षेत्र या अंचल का अपना गौरवशाली इतिहास और विशिष्ट सांस्कृतिक पहचान है। प्रत्येक नाम के साथ प्राचीन सन्दर्भ और मान्यतायें जुड़ी हैं जिन्हें सहज ही भुलाया नहीं जा सकता । राजनीतिक उथल-पुथल एवं परिवर्तन के बावजूद भी लोकमानस उन प्राचीन नामों के मोह को त्याग नहीं पाता क्योंकि उसमें उसे अपने विगत गौरव की अनुभूति होती है। प्राचीन नामों में उस क्षेत्र का अतीत बोलता है।

वर्तमान में बनारस का नाम वाराणसी, मैसूर का कर्नाटक, मद्रास का चेन्नई, बम्बई का मुम्बई, पूना का पुणे आदि करने के मूल में ऐतिहासिक चेतना के इसी सम्मोहन की प्रेरणा है। यद्यपि आज शेखावाटी एवं मालवा जैसे शब्द अपना राजनैतिक अस्तित्व खो चुके हैं तथापि लोकमानस में अपने भावमय स्वरूप में वे आज भी जीवित हैं। कारण इन नामों के साथ जो शताब्दियों की ऐतिहासिक एवं सांस्कृतिक परम्परायें जुड़ी हुई हैं वे इन्हें मरने नहीं देती।

उनमें इतिहास का एक अजीब आकर्षण है, गौरव का अनूठा एहसास है जो इन नामों से संचित स्थानों या प्रदेशों का राजनैतिक अस्तित्व विलुप्त हो जाने के बावजूद भी इन्हें किसी न किसी रूप में बचाए रखना चाहता है। राजस्थान शब्द में भी इसकी प्राचीन ऐतिहासिक व सांस्कृतिक परम्पराओं की कुछ ऐसी ही गौरव गरिमा का भाव सुरक्षित है।

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