दुर्गों का वर्गीकरण एवं संक्षिप्त परिचय। राजस्थान में दुर्ग निर्माण की एक अतिशय समृद्ध परम्परा रही है। हमारे प्राचीन भारतीय वास्तुशास्त्र और शिल्पशास्त्र के ग्रन्थों में विभिन्न प्रकार के दुर्गों के जो प्रमुख भेद और लक्षण बताये हैं प्राय: उन सभी के उदाहरण यहाँ पर विद्यमान हैं ।
गिरि दुर्ग- गिरि दुर्गों में राजस्थान का गौरव चित्तौड़ का किला सबसे प्राचीन और प्रमुख है। चित्तौड़ के किले की संरचना में प्राचीन भारतीय वास्तुशास्त्र के आदर्शों का बहुत सुन्दर ढंग से निर्वाह हुआ है जिससे इसे एक उत्कृष्ट गिरि दुर्ग कहा जा सकता है। दिल्ली से मालवा और गुजरात जाने वाले मार्ग पर अवस्थित होने के कारण प्राचीन और मध्यकाल में इस किले का विशेष सामरिक महत्त्व था ।
विशिष्ट संरचना और भौगोलिक महत्त्व वाले इस किले को गौरव प्रदान किया हजारों वीर क्षत्रिय योद्धाओं के बलिदान और सैकड़ों राजपूत ललनाओं के जौहर ने, जिस कारण यह किला सब किलों का सिरमौर समझा जाता है । चित्तौड़ के इस किले पर इतिहास के तीन प्रसिद्ध साके हुए। पहला सन् 1303 में जब दिल्ली के सुलतान अलाउद्दीन खिलजी ने रणथम्भौर विजय के बाद चित्तौड़ को आक्रान्त किया ।


दूसरा साका 1534 ई० में हुआ जब गुजरात के सुलतान बहादुरशाह का हमला हुआ। तीसरा साका 1567 ई में हुआ जब अकबर ने चित्तौड़ पर आक्रमण किया। तीनों ही अवसरों पर राजपूत योद्धाओं ने केसरिया वस्त्र धारण कर शत्रु से जीवन के अंतिम क्षण तक लड़ते हुए अपना बलिदान दिया तो क्षत्रिय वीरांगनाओं ने जौहर की ज्वाला में अपने प्राणों की आहुति दी ।
मातृभूमि और स्वाभिमान की रक्षा के लिए वीरता और बलिदान की जो रोमान्चक गाथाएँ चित्तौड़ के किले से जुड़ी हैं वे अन्यत्र दुर्लभ हैं। रानी पद्मिनी के जौहर, वीर जयमल राठौड़ और पत्ता सिसोदिया के पराक्रम और बलिदान का साक्षी चित्तौड़ का किला इतिहास में अपना कोई सानी नहीं रखता। कविवर ठा० अक्षयसिंह रत्नू ने चित्तौड़ के गौरव का यशोगान करतेहुए ठीक ही कहा है —
जिण अजोड़ राखी जुड़यां मेवाड़ा सूं मरोड़।
किलां मोड़ बिलमा तणू, चित तोड़ण चित्तौड़।।
वीरता और बलिदान की घटनाओं के लिए तो चित्तौड़ प्रसिद्ध है ही, स्थापत्य कला की दृष्टि से भी चित्तौड़ का किला अपने ढंग का एक निराला दुर्ग है। सुदृढ़ और घुमावदार प्राचीर, सात अभेद्य प्रवेश द्वार, उन्नत और विशाल बुजैं, किले पर पहुँचने का टेढ़ा मेढ़ा और लम्बा सर्पिल मार्ग इन सब विशेषताओं ने उसे एक विकट दुर्ग का रूप प्रदान किया है।
चित्तौड़ के किले का दुर्भेद्य स्वरूप इसी तथ्य से प्रकट है कि अकबर जैसे शक्तिशाली बादशाह की सेना भी तीन माह से अधिक चलने वाले घेरे के बाद ही चित्तौड़ पर अधिकार कर सकी थी। चित्तौड़ की महिमा किसी तीर्थ स्थान से कम नहीं है’ –
शाकां त्रिहु साक्षात त्रिवेणी त्याग री ।
कुम्भलगढ़ का किला गिरिदुर्ग का अच्छा उदाहरण है। मेवाड़ और मारवाड़ की सीमा पर बने कुम्भलगढ़ के किले का निर्माण मेवाड़ के यशस्वी शासक राणा कुम्भा ने करवाया था। यह निर्माण कुम्भा के प्रमुख शिल्पी और वास्तुशास्त्र के प्रसिद्ध विद्वान मंडन की योजना और देखरेख में किया गया था। पर्वतमालाओं की गोद में बना कुम्भलगढ़ सही अर्थों में एक प्राकृतिक दुर्ग है। चारों तरफ हरियाली और पर्वत शिखरों से घिरा होने के कारण यह बहुत ऊँचा होते हुए भी दूर से दिखलाई नहीं पड़ता।
इस विशेषता के कारण कुम्भलगढ़ का दोहरा महत्त्व था। जहाँ एक ओर यह दुर्ग सैनिक अभियानों के संचालन की दृष्टि से उपयोगी था वहीं विपत्ति के समय शरणस्थल के रूप में भी उपयुक्त था। कुम्भलगढ़ के स्थापत्य में उसकी यह विशेषता किले के भीतर बने लघु दुर्ग या आन्तरिक दुर्ग कटारगढ़ के रूप में प्रकट हुई है।
कई मील लम्बी विशाल और उन्नत प्राचीर जिस पर तीन चार घुड़सवार एक साथ चल सकें, प्राचीर के मध्य आनुपातिक दूरी पर बनी विशाल बुजैं, ऊँचे और अवरोधक प्रवेश द्वार कुम्भलगढ़ के किले को दुर्भेद्य स्वरूप प्रदान करते हैं। कर्नल टॉड ने इस दुर्ग की तुलना (सुदृढ़ प्राचीर, बुज एवं कंगूरों के कारण) एटुस्कन से की है जबकि इतिहासकार रायबहादुर हरबिलास शारदा ने इस किले को कुम्भा की सैनिक मेघा का प्रतीक बताया है। श्री शारदा के शब्दों में –
The highest monument of Kumbha’s military and costructive genius, however is the wonderful fortress of Kumbhalgarh or Kumbhalmer second to none in strategical importance or historical renown.
इस किले की ऊँचाई के बारे में अबुल फजल ने लिखा है कि यह इतनी बुलन्दी पर बना हुआ है कि नीचे से ऊपर की ओर देखने पर सिर से पगड़ी गिर जाती है। राजस्थान के गिरि दुर्गों में प्रमुख तथा हम्मीर की आन बान का प्रतीक रणथम्भौर अरावली पर्वत शृंखलाओं से घिरा एक विकट दुर्ग है। बीहड़ वन और दुर्गम घाटियों के मध्य अवस्थित यह दुर्ग बीते जमाने में भारत के गिरि दुर्गों में श्रेष्ठ माना जाता था। इस सम्बन्ध में डॉ० दशरथ शर्मा ने लिखा है —
As a fort Ranthambor was stronger, because it stood in a mountainous tract surrounded on all sides by hills which served its outer walls.
इस दुर्ग के स्थापत्य की विलक्षण बात यह है कि इसमें गिरि दुर्ग और वन दुर्ग दोनों की विशेषताएँ विद्यमान हैं। एक उन्नत और विशाल पर्वत शिखर पर अवस्थित होकर भी किला से दिखाई नहीं पड़ता जबकि इसके ऊपर से शत्रु सेना आसानी दूर से देखी जा सकती है। रणथम्भौर की सुदृढ नैसर्गिक सुरक्षा व्यवस्था से प्रभावित होकर अबुल फजल ने लिखा है कि अन्य सब दुर्ग नंगे हैं जबकि यह दुर्ग बख्तरबंद रणथम्भौर को सर्वाधिक गौरव मिला यहाँ के वीर और पराक्रमी शासक राव हम्मीरदेव चौहान के बलिदान से।
हम्मीर ने सुलतान अलाउद्दीन खिलजी के विद्रोही सेनापति मीर मुहम्मदशाह को अपने यहाँ शरण दी जिसके फलस्वरूप 1301 ई० में अलाउद्दीन ने रणथम्भौर को आ घेरा। राव हम्मीर चौहान ने शरणागत वत्सलता के आदर्श का निर्वाह करते हुए राज्यलक्ष्मी सहित अपना सर्वस्व न्यौछावर कर दिया। गिरि दुर्गों में सिवाणा के किले का अपना महत्त्व है। यह किला जालौर से लगभग 30 मील दूर पर्वत शिखरों के मध्य अवस्थित है।
दुर्गों का वर्गीकरण एवं संक्षिप्त परिचय
सुलतान अलाउद्दीन खिलजी ने 1310 ई० के लगभग सिवाणा के किले पर आक्रमण किया था। सिवाणा के दुर्गाध्यक्ष सातलदेव ने (जो कि जालौर के सोनगरा (चौहान) शासक कान्हड़देव का भतीजा था) इस आक्रमण का डटकर मुकाबला किया। अन्तत: अलाउद्दीन की सेना दुर्ग तक पहुँच गयी । दुर्ग की रक्षा का कोई उपाय न देख दुर्ग की ललनाओं ने जौहर का अनुष्ठान किया तथा वीर सातल सहित उसके सुभट सामन्त केसरिया वस्त्र धारण कर शत्रु सेना पर टूट पड़े तथा वीरगति को प्राप्त हुए।
सिवाणा के साथ सातल-सोम और राठौड़ वीर कल्ला रायमलोत की शौर्य गाथाएँ जुड़ी हुई हैं। सिवाणा का किला संकटकाल में मारवाड़ (जोधपुर) के राजाओं का शरण स्थल रहा है। राव मालदेव ने गिरि सुमेल के युद्ध के बाद शेरशाह की सेना द्वारा पीछा किये जाने पर सिवाणा के किले में आश्रय लिया था। तदनन्तर उनके यशस्वी पुत्र चन्द्रसेन ने सिवाणा के किले को केन्द्र बनाकर मुगलों के विरुद्ध संघर्ष किया।
पश्चिमी राजस्थान के गिरि दुर्गों में जालौर का दुर्ग प्रमुख है जो सुदृढ़ बुज और विशाल परकोटे से युक्त है। इसके स्थापत्य का वर्णन करते हुए डॉ० दशरथ शर्मा ने लिखा है –
The fort of Jalor stood on the extremity of the range extending north to Siwana. Its strong high walls, towers at corners and strong gates find a mention in Kanhadadeprabandha…. The structure saw no essential changes during the period of its Muslim and Rathor occupation. The fort was wellprovisioned, for it could any day be expected to stand a siege.

शत्रु के अनेक आक्रमणों को विफल करने वाले इस किले के साथ वीर कान्हड़दे सोनगरा के उद्भट पराक्रम का आख्यान जुड़ा हुआ है जिसने अलाउद्दीन खिलजी की शक्तिशाली सेना का जबर्दस्त प्रतिरोध करते हुए वीरगति पायी। उसकी वीरता और पराक्रम का विस्तृत उल्लेख कवि पद्मनाभ विरचित कान्हड़दे प्रबन्ध नामक ऐतिहासिक काव्य में हुआ है। तदनन्तर इसी किले में जोधपुर के महाराजा मानसिंह ने फौजबख्शी इन्द्रराज सिंघवी द्वारा लम्बे अरसे तक की गई घेराबंदी का डटकर मुकाबला किया तथा उसकी लाख कोशिशों के बावजूद भी किला खाली नहीं किया ।
इसके अलावा अरावली पर्वतमाला के एक उन्नत शिखर पर अवस्थित अजयमेरू दुर्ग (तारागढ़) भी एक सुदृढ़ और प्रसिद्ध किला है। यह गढ़बीटली के नाम से भी जाना जाता है । शाहजहाँ के शासनकाल में विट्ठलदास गौड़ यहाँ का दुर्गाध्यक्ष था और संभव है कि उस पराक्रमी योद्धा के नाम पर ही इस किले का नाम गढ़बीटली पड़ा हो । कर्नल टॉड के अनुसार इस दुर्ग का निर्माण चौहान राजा अजयपाल ने करवाया था ।
राजपूताना के मध्य में अवस्थित होने के कारण तारागढ़ को प्राय: प्रत्येक युग में आक्रमणों का सामना करना पड़ा। चौहानों के बाद यहाँ मुख्यतः मुहम्मद गोरी गुलाम वंशीय सुलतानों, अलाउद्दीन खिलजी, राणा कुम्भा, राव मालदेव और फिर मुगल शासकों का आधिपत्य रहा । यहाँ प्रतापी शासक वत्सराज गौड़ की दानवीरता तथा अजमेर किले के वैभव का इस दोहे में सुन्दर वर्णन हुआ है.
देतो अडूब पसाव दत्त, धिनो गौड़ बच्छराज।
गढ़ अजमेर सुमेर सूँ, ऊंचो दीखे आज ॥
हाड़ा राजपूतों की वीरता का प्रतीक बूंदी का तारागढ़ पर्वत शिखरों से सुरक्षित और नैसर्गिक सौन्दर्य से ओतप्रोत एक उत्कृष्ट गिरि दुर्ग है। सुदृढ़ और उन्नत प्राचीर, विशाल प्रवेश द्वार तथा अतुल जलराशि से परिपूर्ण तालाब ऐसा नयनाभिराम दृश्य प्रस्तुत करते हैं कि बूंदी के तारागढ़ का सौन्दर्य देखते ही बनता है। महलों के भीतर सुन्दर चित्रकारी हाड़ौती कला के सजीव रूप का प्रतिनिधित्व करती है। कर्नल टॉड ने बूंदी के राजमहलों को राजस्थान के सभी रजवाड़ों के राजप्रासादों में सर्वश्रेष्ठ बताया है। किले या गढ़ पर हाड़ों की वीरता तो सर्वप्रसिद्ध है-
बलहठ बेका देवड़ा, करतब बंका गौड़ ।
हाड़ा बांका गाढ़ में, रण बंका राठौड़ ।।
आबू का अचलगढ़ राजस्थान के पर्वतीय दुर्गों में अपनी अलग पहचान रखता है। आबू का पुराना किला परमार शासकों द्वारा बनवाया गया था जिनका अर्बुदाचल क्षेत्र में लम्बे अरसे तक वर्चस्व रहा। आगे चलकर 1542 ई० के लगभग राणा कुम्भा ने प्राचीन किले के भग्नावशेषों पर नया दुर्ग बनवाया जो अचलगढ़ कहलाता है। गुजरात की तरफ से होने वाले संभावित आक्रमणों से सुरक्षा की दृष्टि से इस दुर्ग का विशेष सामरिक महत्त्व था। अचलेश्वर महादेव का मन्दिर, मन्दाकिनी कुण्ड, सिरोही के महाराव मानसिंह का स्मारक वहाँ के प्रमुख ऐतिहासिक स्थान हैं।
पर्वतीय दुर्गों में जोधपुर का किला मेहरानगढ़ भी प्रमुख और उल्लेखनीय है । राठौड़ों की वीरता और पराक्रम के साक्षी इस किले का निर्माण विक्रम संवत 1515 (1458ई०) में जोधपुर के यशस्वी संस्थापक राव जोधा ने करवाया था। यह किला जिस पहाड़ी पर अवस्थित है वह चिड़ियाटूक कहलाती है। अपनी विशालता के कारण ही सम्भवतः यह दुर्ग मेहरानगढ़ कहलाया। मयूराकृति का होने के कारण इसे मयूर ध्वजगढ़ भी कहते हैं। इस किले ने कई जमाने देखे हैं। राव मालदेव का वर्चस्व, शेरशाह का आधिपत्य, वीर दुर्गादास की स्वामिभक्ति तथा महाराजा जसवन्तसिंह और अभयसिंह जैसे वीर एवं प्रतापी शासक अलंकृत जालियों और झरोखों से युक्त इस किले के महल हिन्दू स्थापत्य कला के उत्कृष्ट नमूने हैं।
मेवाड़ का मांडलगढ़ का किला भी एक प्रमुख गिरि दुर्ग है। श्रृंगी ऋषि शिलालेख’ के अनुसार ‘मंडलाकृति’ का होने के कारण ही संभवतः इस दुर्ग का नाम मांडलगढ़ पड़ा। यथा
‘भग्नो विद्युत मंडलाकृति गढ़ी जित्वा समस्तानरीन ।’
अकबर ने मांडलगढ़ को केन्द्र बनाकर महाराणा प्रताप के विरुद्ध सैनिक अभियान किये। 1576 ई० के प्रसिद्ध हल्दीघाटी युद्ध से पहले कुंवर मानसिंह ने लगभग एक महीने तक मांडलगढ़ में रहकर शाही सेना को युद्ध के लिए तैयार किया। जगन्नाथ कछवाहा तथा खंगारोत शाखा के प्रधान राव खंगार ने मांडलगढ़ के समीप पुरमांडल में शाही थाने की रक्षा करते हुए वीरगति पायी जिनके स्मारक वहाँ विद्यमान हैं।
ढूंढाड़ के कछवाहा राजवंश की पूर्व राजधानी आम्बेर का दुर्ग भी पर्वत शृंखलाओं से परिवेष्टित है। सुदृढ प्राचीर और विशाल प्रवेश द्वार इन सबने मिलकर उसे एक दुर्भेद्य दुर्ग का रूप दे दिया है। किले के नीचे मावठा तालाब और दिलआराम (दिलाराम) का बाग उसके सौन्दर्य को द्विगुणित कर देते हैं। राजा मानसिंह, मिर्जा राजा जयसिंह, सवाई जयसिंह और अन्य प्रतापी नरेशों द्वारा निर्मित आम्बेर के भव्य राजप्रासाद राजपूत शैली पर बने हैं।
यत्र तत्र उनमें मुगलकाल की हिन्दू मुस्लिम स्थापत्य कला के समन्वय की प्रवृत्ति भी मुखरित हुई है। सुन्दर चित्रकारी से युक्त गणेशपोल, रंग बिरंगे बारीक काँच की भव्य कलाकृति शीशमहल, संगमरमर की अलंकृत जालियों से बना सुहाग मन्दिर तथा चन्दन व हाथीदांत के बारीक काम का भवन सुख मन्दिर, दीवान-ए-आम, दीवान-ए-खास, बारादरी तथा अन्य भवन स्थापत्य कला के उत्कृष्ट नमूने हैं। आम्बेर का जगतशिरोमणि मन्दिर तो हिन्दू स्थापत्य कला की अद्भुत और अनुपम कृति है।
आम्बेर के राजप्रासाद के ऊपर पर्वत शिखर की सबसे ऊँची चोटी पर जयगढ़ का प्रसिद्ध किला है। यह किला कब बना इसके बारे में प्रामाणिक जानकारी का अभाव है। संभवतः इसका निर्माण राजा मानसिंह प्रथम अथवा मिर्जाराजा जयसिंह द्वारा करवाया गया और फिर सवाई जयसिंह ने इस किले का विस्तार करवाया। यह किला प्राचीन भारतीय वास्तुशास्त्र के आदर्शों के अनुरूप बना है तथा एक सुदृढ़ दुर्ग है ।
उपलब्ध साक्ष्यों से पता चलता है कि रियासत काल में इस किले का उपयोग राजनैतिक कैदियों को रखने के लिए किया जाता था। जयगढ़ के किले की प्रमुख विशेषता यह है कि इसमें तोपें ढालने का एक विशाल कारखाना है जो शायद ही अन्य दुर्ग में मिले। इस किले में रखी ‘जयबाण’ एशिया की सबसे बड़ी तोप है । इस किले की एक और उल्लेखनीय विशेषता है पानी के विशाल टांके।
किले के चारों ओर पहाड़ियों पर बनी पक्की नालियों से बरसात का पानी इन टांकों में एकत्र होता है। जालियों के द्वारा उसको छानने या फिल्टर होने का भी प्रबन्ध है। इनमें सबसे बड़ा टांका लगभग 54 फीट गहरा है। बीते जमाने में यह किला एक रहस्यमय दुर्ग समझा जाता था और अभी कुछ वर्षों पूर्व खजाने की खोज के कारण विशेष चर्चित रहा । जयगढ़ के पार्श्व में पहाड़ी शृंखला के दूसरे छोर पर नाहरगढ़ अवस्थित है । विशाल बुजों और भव्य महलों वाला यह किला जयपुर शहर की ओर झाँकता हुआ सा प्रतीत होता है।
इस किले का एक नाम सुदर्शनगढ़ भी है। किन्तु इसका नाहरगढ़ नाम ही अधिक लोकप्रिय है। जनश्रुति है कि इसका यह नाम नाहरसिंह भोमिया के नाम पर पड़ा जिनका स्मारक किले के भीतर विद्यमान है। ऐसी मान्यता है कि इस किले का निर्माण महाराजा सवाई जयसिंह ने मरहठों के विरुद्ध सुरक्षा की दृष्टि से करवाया था ।
ढूंढाड़ में कछवाहा राजवंश की पहली राजधानी दौसा का किला एक विशाल और ऊँची पहाड़ी पर बना है तथा अपने ढंग का निराला दुर्ग है। समुद्रतल से 1643 फीट ऊँचा यह किला लगभग 4 मील की परिधि में फैला है। यह विशाल किला सूप (छाजले) की आकृति लिए हुए है। सामरिक दृष्टि से महत्त्वपूर्ण इस दुर्ग का निर्माण इस क्षेत्र के चौहान अथवा बड़गूजर क्षत्रियों ने करवाया था।
बाद में कछवाहा शासकों ने इस किले में अनेक नयी बुजें, प्राचीर एवं दूसरे भवन बनवाये । दौसा के किले के साथ कछवाहों के प्रारम्भिक इतिहास, ढूंढाड़ में उनके आगमन तथा निकटवर्ती स्थानों के शासकों के साथ उनके संघर्ष की रोमांचक दास्तान जुड़ी है। उपर्युक्त प्रमुख गिरि दुर्गों के अलावा पूर्वी राजस्थान में बयाना का किला, तिमनगढ़ का दुर्ग, मारवाड़ का सोजत और कुचामन का किला, पूर्व जयपुर रियासत के शिवाड़, कालख, काकोड़ और खंडार के किले, हाड़ौती का शेरगढ़ तथा सिरोही का बसन्तगढ़ दुर्ग भी अपने स्थापत्य और विशिष्ट संरचना के कारण उल्लेखनीय हैं।
जल दुर्ग — राजस्थान में जल दुर्ग के भी उदाहरण हैं। शुक्रनीति में जल दुर्ग के लक्षणों का उल्लेख करते हुए कहा गया है — जल दुर्ग स्मृतं तज्ज्ञैरास मन्तमहाजलम। अर्थात् जो जल से घिरा हो उसे जल दुर्ग कहते हैं। इस दृष्टि से गागरोण का दुर्ग जल दुर्ग की कोटि में आता है। यह किला झालावाड़ से लगभग 4 कि०मी० उत्तर की ओर स्थित है। राजस्थान के सबसे सुदृढ़े और प्राचीन दुर्गों में से एक गागरोण दुर्ग एक यू मजबूत और विशाल पर्वतीय चट्टान पर अवस्थित है तथा तीन ओर से आहू और कालीसिन्ध नदियों से परिवेष्टित है।
दुर्ग के दक्षिण में दोनों नदियों ( आहू व कालीसिन्ध) का संगम होता है जहाँ से ये दोनों नदियाँ एकरूप हो, दुर्ग के पूर्वी भाग की परिक्रमा कर उसकी उत्तरवर्ती प्राचीर के समानान्तर बहती हुई ‘गणेशघाट’ नामक स्थान से उत्तर की ओर प्रवाहित हो जाती हैं।
सन् 1423 में गागरोण का वह इतिहास प्रसिद्ध साका हुआ जिसमें मांडू (मालवा) के सुलतान होशंगशाह के आक्रमण का जमकर मुकाबला करते हुए यहाँ के अतुल पराक्रमी शासक अचलदास खींची ने अपने सहस्त्रों योद्धाओं सहित वीरगति प्राप्त की तथा उसकी रानियों सहित दुर्ग की सैकड़ों ललनाओं ने जौहर की ज्वाला में अपने प्राणों की आहुति दी।
अचलदास के इस दुर्धर्ष संग्राम का उसके राज्याश्रित कवि शिवदास गाडण ने (जो कि सम्भवतः इस युद्ध व्यापार का प्रत्यक्ष द्रष्टा था) बहुत ही ओजस्वी और रोमांचक वर्णन किया है ।
वीर अचलदास के अपूर्व पराक्रम और बलिदान की प्रशंसा करते हुए कवि कहता है –
भोज तणै भुजबलां असुर दहवट्टा कीया ।
अचलदास गागरुण कोट माथा सुं दीया ।।
लगभग 574 वर्ष पूर्व लिखी गयी ‘अचलदास खींची री वचनिका’ गागरोण दुर्ग पर हुए उस भीषण संग्राम का वर्णन करने वाली एक महत्त्वपूर्ण कृति है। डिंगल के इस ऐतिहासिक काव्य या आदि वचनिका का राजस्थानी के मूर्धन्य विद्वान डॉ० शम्भुसिंह मनोहर ने सम्पादन किया है। भैंसरोड़गढ़ का दुर्ग भी जल दुर्ग की कोटि में आता है। यह किला उदयपुर से लगभग 120 मील दूर चम्बल और बामनी नदियों के संगम पर अवस्थित है तथा तीन तरफ से वर्ष पर्यन्त अतुल जल से घिरा रहता है। वैसे दक्षिण भारत का वैल्लौर दुर्ग देश में जल दुर्ग का सर्वोत्तम उदाहरण है।
भूमि दुर्ग एवं धान्वन दुर्ग राजस्थान में स्थल दुर्ग तो अनेक हैं। उत्तरी सीमा के प्रहरी और उत्तर भड़ किंवाड़’ का विरुद धारण करने वाले भाटी राजपूतों की वीरता, शौर्य और बलिदान का प्रतीक है जैसलमेर का किला जैसलमेर री ख्यात के अनुसार विक्रम संवत 1212 (1155 ई०) सावण सुदि 12 अदीतवार मूल नक्षत्र में राव जैसल ने गढ़ जैसलमेर की नींव दी. जैसलमेर का यह किला सोनारगढ़ या सोनगढ़ कहलाता है।
चारों ओर मरुस्थल से घिरा होने के कारण दुर्गों का वर्गीकरण एवं संक्षिप्त परिचय / 21 इसे शास्त्रों में वर्णित धान्वन दुर्ग की कोटि में रख सकते हैं। त्रिकुटाकृति का 99 बजाँ वाला जैसलमेर का विशाल किला अंगड़ाई लेते हुए सिंह के समान प्रतीत होता है । ‘ इस किले के साथ भाटी राजाओं के अद्भुत पराक्रम और वीरांगनाओं के जौहर के रोमांचक प्रसंग जुड़े हैं। वीरता की परम्परा में यह किला चित्तौड़ की तरह ही है ।
चित्तौड़ के इतिहास प्रसिद्ध तीन साके हुए तो जैसलमेर में ढाई साके होने के ऐतिहासिक प्रमाण मिलते हैं। इनमें पहला साका अलाउद्दीन खिलजी के आक्रमण के समय हुआ जब कई वर्षों तक चलने वाले लम्बे घेरे के उपरान्त यहाँ के भाटी शासक मूलराज, कुंवर रतनसी सहित सैकड़ों योद्धाओं ने आक्रान्ता का सामना करते हुए अपने प्राणोत्सर्ग किये तथा दुर्ग की सहस्त्रों ललनाओं ने जौहर का अनुष्ठान किया । जैसलमेर का दूसरा में हुआ जब जैसलमेर के ने शत्रु सेना से लड़ते हुए प्रज्वलित की।
साका दिल्ली के सुलतान फीरोजशाह तुगलक के शासनकाल रावल दूदा, त्रिलोकसी व अन्य भाटी सरदारों और योद्धाओं वीरगति पाई और दुर्ग की वीरांगनाओं ने जौहर की ज्वाला
जैसलमेर का तीसरा साका ‘अर्द्ध साका’ कहलाता है। कारण इसमें वीरों ने केसरिया तो किया (लड़ते हुए वीर गति पायी) लेकिन जौहर नहीं हुआ। अत: इसे आधा साका ही माना जाता है।
यह अर्द्ध साका जैसलमेर के राव लूणकरण के शासन काल में कंधार के राज्यच्युत शासक अमीर अली के छलपूर्वक किये गये हमले के समय वि० संवत 1697 (1550 ई०) में हुआ जिसमें रावल लूणकरण ने शत्रु से जूझते हुए अपने अनेक योद्धाओं सहित वीरगति पाई । जैसलमेर का यह किला स्थापत्य की दृष्टि से भी उत्कृष्ट है।
रेगिस्तान की बालू रेत से मिलते जुलते गहरे पीले रंग के पत्थरों से लगभग 842 वर्ष पहले (1155 ई० में) निर्मित यह किला ऐसा विशाल और सुदृढ़ दुर्ग है जो बिना चूने के सिर्फ पत्थर पर पत्थर रखकर बनाया गया हैं जो इसके स्थापत्य की अनूठी विशेषता है। प्रातः काल और सूर्यास्त के समय सूर्य की लालिमा से यह सोने के समान चमकता हुआ अपना सोनगढ़ नाम सार्थक करता है। जैसलमेर री ख्यात में इसकी प्रशंसा करते हुए ठीक ही कहा है. –
लंका ज्यु अगजीत है घणा घाट रे घेर ।
रिधु रहीसी भाटियां मही पर जैसलमेर ।।
भाटियों की वीरता का साक्षी भटनेर का प्राचीन दुर्ग नवस्थापित जिले हनुमानगढ़ में अवस्थित है। घग्घर नदी के मुहाने पर बने इस प्राचीन दुर्ग को उत्तरी सीमा का प्रहरी कहा जाय तो कोई अत्युक्ति नहीं होगी। कारण मध्य एशिया से होने वाले आक्रमण प्राय: इसी ओर से होते थे। इसके अलावा मध्य एशिया, सिन्ध व काबुल के व्यापारी मुल्तान से भटनेर होते हुए दिल्ली व आगरा तक आते जाते थे ।
दिल्ली मुलतान मार्ग पर स्थित होने के कारण भटनेर का बड़ा सामरिक महत्त्व था। ज्ञात इतिहास के अनुसार घग्घर नदी के तट पर बने इस प्राचीन दुर्ग का निर्माण भाटी राजा भूपत ने तीसरी शताब्दी ई० में करवाया था। इस दुर्ग का घेरा 52 बीघा भूमि पर है तथा इसमें अनेक विशाल बुजें हैं। इसकी सुदृढ़ प्राचीर को भेदना किसी भी आक्रमणकारी के लिए बड़ी चुनौती थी।
अपनी विशिष्ट सामरिक स्थिति के कारण भटनेर पर निरन्तर आक्रमण होते रहे । 1001 ई० में महमूद गजनवी ने भटनेर पर अधिकार कर लिया था। बलबन के शासनकाल में शेरखाँ भटनेर का दुर्गाध्यक्ष था जिसने सीमा पार से खूंखार मंगोल आक्रमणकारियों को रोकने में महती सफलता अर्जित की। उसकी बढ़ती शक्ति से शंकित होकर बलबन ने इस वीर सेनानायक को जहर दिलवाकर मरवा दिया । शेरखाँ की समाधि वहाँ विद्यमान है।
तदुपरान्त आक्रान्ता तैमूर ने भटनेर पर आक्रमण कर किले में व्यापक पैमाने पर कत्लेआम व लूटपाट की। तैमूर के बर्बर आक्रमण से भयाक्रान्त होकर दुर्ग की हिन्दू स्त्रियों ने ही नहीं बल्कि मुस्लिम महिलाओं द्वारा भी जौहर का अनुष्ठान किये जाने के ऐतिहासिक प्रमाण मिलते हैं। तत्पश्चात हुमायूँ के भाई कामरान ने भटनेर पर जोरदार हमला किया जिसमें भटनेर के वीर दुर्गाध्यक्ष खेतसी (राव कांधल का पौत्र) ने अपने राठौड़ योद्धाओं सहित शत्रु से जूझते हुए वीरगति प्राप्त की।
कामरान के अधिकार में रहने के बाद भटनेर पर अधिकांशत: मुगल बादशाहों तथा बीकानेर के राठौड़ों का ही वर्चस्व रहा। बीकानेर के महाराजा सूरतसिंह द्वारा मंगलवार के दिन इस किले को फतह किये जाने के कारण इसका नाम हनुमानगढ़ रख दिया गया । राजस्थान के भूमि दुर्गों में नागौर का प्राचीन दुर्ग उल्लेखनीय है। उपलब्ध जानकारी के अनुसार सोमेश्वर चौहान के सामन्त कैमास ने विक्रम संवत 1211 में नागौर दुर्ग का निर्माण करवाया था।
इस दुर्ग के निर्माण में प्राचीन भारतीय वास्तुशास्त्र के नियमों का पालन हुआ है। सुदृढ प्राचीर और जल से भरी गहरी परिखा या खाई नागौर दुर्ग की विशेषता है। इसकी प्राचीर में 28 विशाल बुर्जे बनी हैं। किले के भीतर सुन्दर भित्तिचित्र बने हैं तथा बादशाह अकबर द्वारा बनवाया गया एक फव्वारा भी विद्यमान है। चारों ओर मरुस्थल और ऊबड़ खाबड़ भूमि से घिरा नागौर का किला धान्वन दुर्ग की कोटि में आता है।
नागौर का किला चौहानों के अलावा विविध मुस्लिम सुलतानों, मुगल बादशाहों तथा राठौड़ों व अन्य राजपूत राजवंशों के अधिकार में रहा है। किन्तु यह किला वीर अमरसिंह राठौड़ की शौर्य गाथाओं के कारण इतिहास में एक विशिष्ट स्थान और महत्त्व रखता है । लाल पत्थरों से बना बीकानेर का जूनागढ़ भी स्थल दुर्ग का अच्छा उदाहरण है । मरुस्थल के मध्य अवस्थित होने के कारण इसमें धान्वन दुर्ग की विशेषताएँ विद्यमान हैं।
बीकानेर के महाराजा रायसिंह द्वारा निर्मित इस भव्य दुर्ग ने सजातीय जोधपुर के राठौड़ों के आक्रमणों का सफल प्रतिरोध किया है। इस किले के भव्य महल शानदार भित्तिचित्रों के रूप में कला और संस्कृति की अमूल्य धरोहर संजोये हुए हैं। पूर्वी राजस्थान में भरतपुर का किला लोहागढ़ भूमि दुर्ग का सुन्दर उदाहरण है। इस दुर्भेद्य दुर्ग के साथ जाट राजाओं की वीरता और पराक्रम के रोमांचक आख्यान जुड़े हैं।
महाराजा सूरजमल द्वारा भारतीय दुर्ग स्थापत्य की मान्यताओं के अनुरूप तराशे हुए पत्थरों से निर्मित भरतपुर दुर्ग का अपना शानदार गौरवशाली इतिहास है। इस किले ने शक्तिशाली मुस्लिम आक्रान्ताओं तथा आधुनिक शस्त्रों से सुसज्जित अंग्रेज सेना के आक्रमणों का सफल प्रतिरोध किया है। इसके अलावा माधोराजपुरा का किला भी उल्लेखनीय स्थल दुर्ग है जिसके साथ टौक के नवाब अमीरखाँ की बेगमों को बंधक बनाने वाले लदाणा के भारतसिंह नरूका की वीरता की रोमांचक दास्तान जुड़ी हैं। सामन्ती दुर्गों में चौमूं का चौमुँहागढ़ (जिसे धारा धारगढ़ भी कहते हैं ) भूमि दुर्ग का सुन्दर उदाहरण है।
वन दुर्ग- राजस्थान में वन दुर्ग बहुत कम हैं। यहाँ के कुछ दुर्ग सघन वन झाड़ियों और कंटीले वृक्षों से घिरे हुए होने के कारण प्राचीन भारतीय वास्तुशास्त्र में वर्णित वन दुर्ग के लक्षणों से युक्त हैं। उदाहरणत: रणथम्भौर का प्रसिद्ध गिरिदुर्ग घने जंगल और विशाल वन्य सम्पदा से सम्पन्न होने के कारण वन दुर्ग की विशेषताओं को भी चरितार्थ करता है। इसके अलावा विभिन्न भागों में विद्यमान मीणों के मेवासे संज्ञक लघु दुर्ग भी वन दुर्ग के उदाहरण हैं। बयाना, तिमनगढ़ आदि के किले वन दुर्ग के लक्षणों से परिपूर्ण हैं ।
सारत: राजस्थान गढ़ों और किलों के रूप में अतीत की अनमोल ऐतिहासिक और सांस्कृतिक सम्पदा से सम्पन्न है। यहाँ वास्तुशास्त्र के प्राचीन ग्रन्थों में वर्णित प्रायः सभी कोटि के छोटे बड़े दुर्ग विद्यमान हैं जिनका अपना गौरवशाली अतीत रहा है।
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