दुर्ग निर्माण की प्राचीन परम्परा

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दुर्ग निर्माण की प्राचीन परम्परा। प्राचीन युद्ध परम्परा तथा यहाँ की भौगोलिक स्थिति के कारण उत्तर भारत में तथा विशेषकर राजस्थान में दुर्गों का अत्यधिक महत्त्व रहा है। इस सम्बन्ध में प्राचीन मान्यता है कि गढ़, गढ़ी, किला या दुर्ग वह साधन है जिसमें रहने से गढ़पति को अपनी आत्मरक्षा का बहुत भरोसा रहता है और उसमें रहते हुए उसे बलवान शत्रु भी सहसा सता नहीं सकते।

ऐसा भरोसा बिलवासी या गुहानिवासी सामान्य जीवों को भी होता है। अतः दुर्ग निर्माण की परम्परा हमारे यहाँ बहुत प्राचीन काल से चली आ रही है। जिसका प्रमाण हमारे धर्म एवं नीतिशास्त्र के ग्रन्थ हैं जिनमें वास्तुशास्त्र के अन्तर्गत दुर्ग के रचना शिल्प तथा उनके विविध भेदों का भी विशद विवेचन किया गया है। शुक्रनीति के अनुसार राज्य के सात अंग माने गये हैं, जिनमें दुर्ग भी एक है। ये राज्यांग निम्नांकित हैं –

स्वाम्यमात्य सुहृत्कोश राष्ट्र दुर्ग बलानि च ।
सप्तांग मुच्यते राज्यं तत्र मूर्धा नृपः स्मृतः ।।

{अर्थात् (1) स्वामी (राजा) (2) आमात्य (मंत्री) (3) सुहृत् (4) कोश (5) राष्ट्र (6) दुर्ग तथा (7) सेना}

राज्य में मानव शरीर का रूपक बाँधते हुए शुक्रनीतिकार ने दुर्ग को शरीर के प्रमुख अंग ‘हाथ’ की संज्ञा दी है। यथा –

दृगमात्यं सुहृच्छोत्रं मुख कोशो बलं मनः ।
हस्तौ पादौ दुर्गे राष्ट्र राज्यांगानि स्मृतानि हि ।।

आगे दुर्ग के विविध भेदों का उल्लेख करते हुए शुक्रनीतिकार ने इनके नौ भेद बताये हैं —

षष्ठं दुर्ग प्रकरण प्रवक्ष्यामि समासतः ।
खात कण्टक पाषाणै दुष्पथं दुर्ग मैरिणम ॥
परितस्तु महाखात प्रारिखं दुर्ग मेव तत ।
इष्ट कोपल मृध्दितिप्राकार पारिधं स्मृतम ।।
महाकण्टक वृक्षौधैर्व्याप्तं तद्वन्दुर्गमम् ।
जलांभावस्तु परितो धन्वदुर्ग प्रकीर्तितम ।।
जलदुर्ग स्मृत तज्जैरा समन्तान्महाजल ।
सुवारि पृष्ठोच्चधरं विविक्ते गिरिदुर्गमम् ।।
अभेद्य व्यूहविहीर व्याप्त तत्सैन्दुर्गम ।
सहायदुर्ग तजयेयं शूरानुकूल बान्धवम् ।।

अर्थात् खाई, काँटों तथा पत्थरों से जिसके मार्ग दुर्गम बने हों, उसे एरण दुर्ग कहते हैं। पारिख दुर्ग वह है जिसके चारों तरफ बहुत बड़ी खाई हो । जिसके चारों तरफ ईंट, पत्थर तथा मिट्टी से बनी बड़ी बड़ी दीवारों का परकोटा हो उसे ‘पारिध’ दुर्ग कहते वन दुर्ग तथा धन्व दुर्ग के लक्षण — जो बहुत बड़े बड़े काँटेदार वृक्षों के समूह से चारों तरफ घिरा हुआ हो उसे वन दुर्ग कहते हैं और जिसके चारों तरफ बहुत दूर दूर तक मरुभूमि फैली हुई हो उसे धन्व दुर्ग कहते हैं।

जल दुर्ग तथा गिरि दुर्ग के लक्षण — जिसके चारों तरफ बहुत दूर तक फैली हुई जलराशि हो उसे जल दुर्ग कहते हैं। एकान्त में किसी पहाड़ी पर बना किला जिसमें जल संचय का भी प्रबन्ध हो गिरि दुर्ग की कोटि में आता है।

सैन्य दुर्ग तथा सहाय दुर्ग के लक्षण — व्यूह रचना में चतुर वीरों से व्याप्त होने से जो अभेद्य (आक्रमण द्वारा अजेय) हो उसे सैन्य दुर्ग कहते हैं तथा जिसमें शूर एवं सदा अनुकूल रहने वाले बान्धव लोग रहते हों उसे सहाय दुर्ग कहते हैं ।

शुक्रनीतिकार के अनुसार पारिख दुर्ग से श्रेष्ठ एरिण दुर्ग, उससे श्रेष्ठ पारिध दुर्ग, उससे श्रेष्ठ वन दुर्ग, उससे श्रेष्ठ धन्व दुर्ग, उससे श्रेष्ठ जल दुर्ग तथा उससे भी श्रेष्ठ गिरि दुर्ग को माना गया है। लेकिन इन सभी से उत्तम है सैन्य दुर्ग जिसे सर्वश्रेष्ठ बताया गया है।

यथा श्रेष्ठ तु सर्वदुर्गेभ्य: सेनादुर्गम: स्मृतंबुधः ।

राजा को सुदृढ़ दुर्ग बनाने का निर्देश देते हुए शुक्रनीति में उल्लेख है कि ह से नित्य सुरक्षित तथा तोपों से युक्त व बहुत से कुश आदि के गुच्छे जिस पर उगे हुए हों तथा जिसमें सुन्दर रीति की खिड़कियों की जालियाँ बनी हों तथा जिसके भीतर उससे छोटा दूसरा प्राकार (परकोटा) बना हुआ हो और जिसके समीप में पर्वत न हो, ऐसा प्राकार (परकोटा) बनाना चाहिए और उसके बाद ऐसी परिखा (खाई) बनानी चाहिए, जिसकी चौड़ाई उसकी गहराई से दुगुनी हो और जिसके अत्यन्त समीप में प्राकार न खिंचा हो व जिसमें अगाध जल भरा हो ।

दुर्ग निर्माण की प्राचीन परम्परा

दुर्ग निर्माण की प्राचीन परम्परा (किले)

दुर्ग का महत्त्व सेना के साथ जुड़ा हुआ है। युद्ध कला में दक्ष सेना के बिना दुर्ग वैसे ही हैं जैसे बिना प्राणों के शरीर । शुक्रनीति में राजा को यह आगाह किया गया है कि युद्ध करने योग्य साधन सामग्रियों यथा शस्त्रास्त्र, बारूद एवं युद्ध कला में निपुण योद्धाओं के बिना दुर्ग में केवल निवास करना राजा के लिए कल्याणकारक नहीं होता है प्रत्युत उसका बंधन हो जाता है। अन्य आचार्यों ने दुर्गों के विषय में लगभग ऐसे ही विचार प्रकट किये हैं। कौटिल्य ने दुर्गों के निर्माण एवं उनमें से किसी एक में राजधानी बनाने के विषय में विस्तार से लिखा है। उन्होंने चार प्रकार के दुर्गों का उल्लेख किया है –

(1) औदक दुर्ग — उदक जल कहते हैं। अत: औदक दुर्ग का अर्थ हैदुर्ग। अर्थात् जो जल से सुरक्षित व द्वीप सा हो तथा जिसके चारों ओर जल हो । राजस्थान का गागरोण दुर्ग बहुत कुछ इसी कोटि का है ।

(2) पार्वत दुर्ग — जो किसी उच्च गिरि शृंग या पर्वत पर अवस्थित हो तथा जिसके चारों ओर पर्वत श्रेणियाँ हों। राजस्थान के अधिकांश प्रमुख दुर्ग इसी कोटि में आते हैं ।

(3) धान्वन दुर्ग — धन्व संस्कृत में मरुस्थल को कहते हैं। अतः धान्वन दुर्ग वह होता है जो मरुस्थल में बना हो तथा उसके इर्द गिर्द झाड़ झंखाड़ तथा ऊबड़-खाबड़ भूमि हो । जैसलमेर का दुर्ग इसी कोटि में रखा जा सकता है ।

(4) वन दुर्ग — वन दुर्ग वह होता है जो सघन बीहड़ वन में बना हो तथा जिसके चारों ओर दलदल या सघन कांटेदार झाड़ियाँ हों। राजस्थान में ‘मेवास’ संज्ञक दुर्ग बहुत कुछ इसी कोटि में माने जा सकते हैं।

कौटिल्य का कहना है कि प्रथम दो प्रकार के दुर्ग जन संकुल स्थानों की सुरक्षा के लिए हैं और अन्तिम दो प्रकार जंगलों की रक्षा के लिए हैं।
नरपतिजयचर्या (पृ. 175-76) में आठ प्रकार के किले बतलाये हैं उनमें (1) पहला ‘धूलकोट’ मिट्टी का होता है। (2) दूसरा ‘जलकोट’ जलपूर्ण खाड़ी आदि से घिरा होता है। (3) तीसरा ‘ नगरकोट’ जनसमूह से भरा हुआ रहता है। (4) चौथा गिरिगह्वर गुफा के रूप में बनता है। (5) पाँचवाँ गिरिकोट’ पर्वतीय (पहाड़ी) परकोटे से घिरा रहता है। (6) छठा डामरकोट डमरू की आकृति में बनता है। (7) सातवाँ विषमभूमि ऊबड़ खाबड़ भूमि का होता है और (8) आठवाँ विषमाख्य बांकी टेढी सुरंगों से युक्त होता है।

विष्णु धर्मसूत्र में दुर्गों के छ: प्रकार बताये हैं —
(1) धान्व दुर्ग — जल विहीन, खुली भूमि पर, पाँच योजन के घेरे में ।
(2) मही दुर्ग — (स्थल दुर्ग) प्रस्तर खण्डों या ईंटों से निर्मित प्रकारों वाला, जो 12 फुट से अधिक चौड़ा तथा चौड़ाई से दुगुना ऊँचा हो ।
(3) वार्क्ष दुर्ग– जो चारों ओर से एक योजन तक कंटीले एवं लम्बे लम्बे वृक्षों, कंटीले लता गुल्मों एवं झाड़ियों से युक्त हो ।
(4) जल दुर्ग — — चारों ओर जल से आवृत्त ।
(5) नृदुर्ग — जो चतुरंगिनी सेना से चारों ओर से सुरक्षित हो ।
(6) गिरि दुर्ग — पहाड़ों वाला दुर्ग जिस पर कठिनाई से चढ़ा जा सके और जिसमें केवल एक ही संकीर्ण मार्ग हो ।

मानसोल्लास (2/5, पृ. 78) में प्रस्तरों, ईंटों एवं मिट्टी से बने अन्य तीन प्रकार जोड़कर नौ दुर्गों का उल्लेख किया है।

मनुस्मृति के अनुसार जो देश प्रचुर धान्यादिक से सम्पन्न हों, जहाँ धार्मिक लोग बसते हों, नीरोग आदि से निरूपद्रव और रमणीय स्थान, जहाँ आसपास के रहने वाले लोग विनीत हों, जहाँ सुलभ जीविका हो, ऐसे देश में राजा को निवास करना चाहिए। धनुदुर्ग, (मरुवेष्टित), महीदुर्ग (पाषाण खण्डवेष्टित) जलदुर्ग, वृक्षदुर्ग नृदुर्ग या गिरिदुर्ग का आश्रय लेकर नगर का वास करे —
धन्व दुर्ग महीदुर्ग मब्दुर्ग वार्क्षमेव वा ।
नृदुर्ग गिरिदुर्ग वा समाश्रित्य वसेत्पुरम ।।

पूर्वोक्त छ: प्रकार के किलों में से प्रयत्न करके गिरि दुर्ग का ही आश्रय करे, इन सभी दुर्गों में अधिक गुणों से युक्त होने के कारण गिरिदुर्ग की अपनी विशेषता है। प्रथम तीन दुर्गों में (यथाक्रम) मृग, चूहे और मगर (जलचर) आश्रय लेते हैं तथा शेष तीन किलों में वृक्ष दुर्ग के आश्रित वानर, मनुष्य और पशुपक्षीगण तथा गिरिदुर्ग के आश्रित देवता होते हैं। यथा –

प्रयत्नेन गिरिदुर्ग समाश्रयेत ।
एषांहि बहुगुण्येन गिरिदुर्ग विशिष्यते ।।

जैसे किले के आश्रित इन मृगादि जीवों को इनके शत्रु नहीं मार सकते वैसे ही दुर्ग के आश्रित राजा को भी शत्रु नहीं मार सकते। दुर्ग या किले के महत्त्व को रेखांकित करते हुए मनुस्मृति में स्पष्ट कहा है किले में रहने वाला एक धनुर्धारी बाहर वाले सौ योद्धाओं का सामना कर सकता है और किले के एक सौ सैनिक दस सहस्त्र सैनिकों के साथ युद्ध कर सकते हैं इसलिए दुर्ग अवश्य बनाना चाहिए-

एकः शतं योधयति प्राकारस्थो धनुर्धरः ।
शतं दशसहस्त्राणि तस्माद्दुर्ग विधीयते ।।

वह किला अस्त्र-शस्त्र, धन धान्य, वाहन, ब्राह्मण, शिल्पी, यन्त्र तृण और जल से परिपूर्ण रहना चाहिए। ऐसे दुर्ग के बीच में पर्याप्त खाई और सब प्रकार ऋतुओं के फल फूल और निर्मल जल से भरे हुए कुए और बावड़ियों से युक्त अपना राजभवन बनवाये ।

विष्णु धर्मोत्तर (2/26/20-88) के अनुसार दुर्ग में पर्याप्त आयुध, अन्न, औषध, धन, घोड़े, हाथी, भारवाही, पशु, ब्राह्मण, शिल्पकार, मशीनें (जो सैकड़ों को एक बार में मारती हैं – शतघ्नी) जल एवं भूसा आदि होना चाहिए ।

नीतिवाक्यामृत ( दुर्गसमुदैश पृ. 199) में उल्लेख है कि दुर्ग में गुप्त सुरंग अवश्य होनी चाहिए जिससे संकट काल में गुप्त रूप से बाहर निकला जा सके, नहीं तो वह बन्दीगृह सा हो जायेगा ।

याज्ञवल्क्य (1/321) ने लिखा है कि दुर्ग की स्थिति से राजा की सुरक्षा, प्रजा एवं कोश की रक्षा होती है (जनकोशात्मगुप्तये) राजा की राजधानी दुर्ग के भीतर या सर्वथा स्वतन्त्र रूप से निर्मित हो सकती थी। कौटिल्य ने अपने अर्थशास्त्र में विस्तार से राजधानी के निर्माण की व्यवस्था दी है। कौटिल्य के मत से राजधानी में पूर्व से पश्चिम तीन राजमार्ग तथा उत्तर से दक्षिण भी तीन राजमार्ग तथा बारह द्वार होने चाहिए। उसमें गुप्त भूमि एवं जल होना चाहिए। राजा का प्रासाद पूर्वाभिमुख या उत्तराभिमुख होना चाहिए। राजप्रासाद के उत्तर में राजा के आचार्य, पुरोहित, मन्त्रियों के गृह तथा यज्ञ भूमि एवं जलाशय होने चाहिए।

समरांगण सूत्रधार, मानसार, राजवल्लभ, रूपमंडन, मानसोल्लास सहित वास्तुशास्त्र के अनेक ग्रन्थों से भी दुर्गों के निर्माण व उनके महत्त्व पर प्रकाश पड़ता सारतः प्राचीन ग्रन्थों में किलों की जिन प्रमुख विशेषताओं का उल्लेख हुआ है वे यहाँ के दुर्गों में प्रायः साकार हुई हैं ।

सुदृढ़ प्राचीर, विशाल परकोटा अभेद्य बुजें, किले के चारों तरफ गहरी नहर परिखा, किले के भीतर सिलहखाना (शस्त्रागार), जलाशय अथवा पानी के टांके, अन्न भण्डार, किले का गुप्त प्रवेश द्वार, सुरंग राजप्रासाद तथा सैनिकों के आवास गृह यहाँ के प्राय: सभी किलों में विद्यमान हैं।

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