राजस्थान के छत्तीस राजकुल (36 राजकुल)

Kheem Singh Bhati
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राजस्थान के छत्तीस राजकुल – राजपूतों के आचार, व्यवहार, समाजनीति, राजनीति और धर्म के साथ संसार की दूसरी प्राचीन जातियों का मिलान करके अब हम राजस्थान के 36 राजकुलों की संक्षिप्त समालोचना करते हैं। इन वंशों का विवरण उन साधनों के द्वारा प्राप्त किया गया है, जिनके सम्बन्ध में अधिक-से-अधिक विश्वास किया जा सकता है। उनमें से पहली रचना नाडौल के प्राचीन नगर मारवाड़ के जैन मन्दिर से प्राप्त हुई है। दूसरी रचना दिल्ली के अन्तिम हिन्दू सम्राट के चारण कवि चन्दबरदाई की है। तीसरी रचना चन्द के समकालीन कवि की ‘कुमारपाल चरित्र’ है। चौथी खींची चारण की और पाँचवीं सौराष्ट्र के एक चारण की है।

राजस्थान के जिन 36 राजवंशों का हम इतिहास लिखने जा रहे हैं, वे बहुत-सी शाखाओं अर्थात् उपवंशों में विभाजित हैं और ये शाखाएँ अगणित प्रशाखाओं अर्थात् गोत्रों में बदल गई हैं। इनमें जो अधिक प्रसिद्ध हैं, उन्हीं के विवरण यहाँ पर दिये गये हैं।
इन राजवंशों में से लगभग एक-तिहाई ऐसे हैं जिनकी शाखाएँ नहीं हैं। राजवंशों के साथ-साथ 84 व्यवसायिक जातियों का भी उल्लेख किया गया है, जो विशेषकर राजपूतों की ही शाखायें हैं और जो प्राचीनकाल में खेती का काम करती थीं अथवा पशुपालन के द्वारा अपना जीवन निर्वाह करती थीं ।

आरम्भ में सूर्य और चन्द्र – ये दो ही वंश थे। बाद में अग्निवंश वालों के मिल जाने से वे 6 हो गये। इनके अलावा अन्य जितने भी वंश हैं, वे सूर्य अथवा चन्द्रवंश की शाखायें हैं अथवा उनकी उत्पत्ति इण्डो-सीथियन जाति से हुई है। भारत में मुस्लिम शासन के पूर्व, उनकी गणना 36 राजकुलों में की जाती थी।

राजस्थान के छत्तीस राजकुल (36 राजकुल)

1. गुहिलोत अथवा गहलोत – (राजस्थान के छत्तीस राजकुल) – सभी की सम्मति के अनुसार और जैसाकि इस जाति के गोत्र से भी सिद्ध होता है, इस वंश के सभी राजा सूर्यवंशी रामचन्द्र के वंशज माने जाते हैं । यह वंश रामचन्द्र से निकला है। पुराणों में राम के वंशजों की जो नामावली दी गई है, उसके अन्तिम राजा सुमित्र के साथ गुहिलोत वंश का सम्बन्ध है। इस वंश का विस्तृत विवरण मेवाड़ के इतिहास में दिया गया है। यहाँ पर संक्षेप में उनकी उन्हीं बातों का उल्लेख किया गया है, जो उनके गोत्र और प्रदेशों से सम्बन्धित हैं।

इसका अनुमान करना बहुत ही कठिन है कि गुहिलोतों का आदि-गोत्रपति ठीक किस समय में अयोध्या (कोशल) को छोड़कर आया था। ऐसा अनुमान है कि रामचन्द्र से कई पीढ़ी पीछे कनकसेन नामक एक सूर्यवंशी राजा ने पितृ राज्य (अयोध्या) को छोड़कर सौराष्ट्र में सूर्यवंश की स्थापना की थी। कनकसेन ने उसी सुप्रसिद्ध विराट प्रदेश में अपनी राजसत्ता कायम की, जहाँ किसी समय पाण्डवों ने अपना अज्ञातवास कर समय बिताया था। कई पीढ़ियों के बाद उसके एक वंशज विजय ने इस प्रदेश में विजयपुर नामक नगर बसाया।

कनकसेन के वंशजों ने वल्लभी राज्य की प्रतिष्ठा नहीं की थी, फिर भी वे वल्लभी के राजा कहलाये। वहाँ का एक संवत् भी चला और उसका आरम्भ विक्रम संवत् 375 में हुआ। गजनी अथवा गपनी वल्लभी राज्य की दूसरी राजधानी थी। वल्लभी का अन्तिम राजा शिलादित्य मलेच्छों के द्वारा घिर कर मारा गया। उसके परिवार को वहाँ से निकाल दिया गया। शिलादित्य के मरणोपरान्त उसके गुहादित्य नामक पुत्र हुआ। गुहादित्य ने आगे चलकर ईडर नामक छोटे से राज्य को जीता और शासन करने लगा।

उसके द्वारा स्थापित राजवंश उसी के नाम पर ‘गुहिल 2 कहलाया और उसके वंशज गुहिलोत कहलाये। कुछ समय बाद यह वंश ‘अहाड़िया वंश’ के नाम से प्रसिद्ध हुआ और बारहवीं सदी तक इसी नाम से पुकारा जाता रहा। इस वंश के राहप नामक राजकुमार ने डूंगरपुर में अपना एक अलग राज्य स्थापित किया और उस राज्य के लोग अब तक अपने को अहाड़िया वंशज मानते हैं।

राहप के छोटे भाई माहप ने सीसोदा नामक गाँव को अपने राज्य की नई राजधानी बनाया। उस समय से उसके वंशज सीसोदिया के नाम से विख्यात हुए। सीसोदियों का यह उपवंश गुहिलोत की शाखा माना जाता है। समय के साथ-साथ गुहिलोत वंश 24 शाखाओं में विभक्त हो गया था। उनमें से कुछ शाखाओं का अस्तित्व अब तक कायम है।

ये 24 शाखायें इस प्रकार हैं—(1) अहाड़िया (डूंगरपुर में), (2) मांगलिया ( मरुभूमि में) (3) सीसोदिया (मेवाड़ में), (4) पीपाड़ (मारवाड़ में), (5) कैलावा, (6) गद्दोर, (7) घोरणिया, (8) गोंधा, (9) मगरोपा, (10) भीमला, (11) कंकोटक, (12) कोटेचा, (13) सोरा, (14) ऊडड़, (15) ऊसेवा, (16) निरूप (5 से 16 तक की शाखाओं के सदस्यों की संख्या काफी कम रही और अब उनका अस्तित्व नहीं मिलता), (17) नादोडया, (18) नाधोता, (19) भोजकरा, (20) कुचेरा, (21) दसोद, (22) भटेवरा, (23) पाहा, और (24) पूरोत। इनमें भी 17 से 24 तक के वंश बहुत पहले से समाप्त हो गये हैं।

राजस्थान के छत्तीस राजकुल (36 राजकुल)
राजस्थान के छत्तीस राजकुल (36 राजकुल)

2. यदु वंश – (राजस्थान के छत्तीस राजकुल) – यदु द्वारा प्रतिष्ठित यादव वंश, सभी वंशों में अधिक विख्यात था और चन्द्रवंश के आदिपुरुष बुध के वंशजों का यही वंश आगे चलकर प्रसिद्धि को प्राप्त हुआ। कृष्ण के देहावसान के बाद युधिष्ठिर और बलदेव ने दिल्ली और द्वारका से महाप्रस्थान किया। कृष्ण के पुत्र भी अन्य यदुवंशियों के साथ, उनके साथ चले। इन लोगों ने मुल्तान के मार्ग से सिन्धु को पार किया जाबुलिस्तान पहुँचकर ये लोग वहीं बस गये। उन्होंने गजनी का सुन्दर नगर बसाया और धीरे-धीरे इनके वंशजों ने समरकन्द तक अपनी बस्तियाँ कायम कर ली।

यह बताना असम्भव है कि श्रीकृष्ण के वंशज किन कारणों से पुनः भारत में आये। अनुमान है कि सिकन्दर के बाद के यूनानी शासकों ने उनको वहाँ से निकाल दिया होगा। पुनः भारत में आने के बाद यादवों ने सिन्धु के पार जाकर पंजाब में अधिकार कर लिया और सलभनपुर (शालिवाहनपुर) नामक नगर बसाया। इस नये प्रदेश में भी वे लोग अधिक तक नहीं टिक पाये और यहाँ से चलकर भारत की मरुभूमि में पहुँच गये।

इस मरुस्थल में पहले से निवास कर रही लङ्गधा, जोहिया और मोहिल आदि जातियों को भगाकर अपना अधिकार जमा लिया। बाद में उन्होंने इस क्षेत्र में कई नगर बसाये जिनमें तन्नौट, देरावल और जैसलमेर विशेष प्रसिद्ध हुए। जैसलमेर की प्रतिष्ठा सम्वत् 1212 में की गई। यही जैसलमेर कृष्ण के वंशजों भट्टी अथवा भाटी लोगों की अब तक राजधानी है। यहाँ पर भट्टी नाम का एक वंश चला, जिसे भट्टी ने चलाया।

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